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________________ अवगाहन में सहायता करता है। यद्यपि सभी सूक्ष्म द्रव्य परस्पर एक दूसरे को अवकाश देते हैं, परन्तु आकाश द्रव्य का कार्य समस्त द्रव्यों को एक साथ स्थान देना है। आकाश के भेद-जैनदर्शन के अनुसार आकाश के दो विभाग किये गये हैं-(1) लोकाकाश और (2) अलोकाकाश। आकाश के जितने भाग में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल, ये पाँच द्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकाश कहलाता है और जहाँ केवल अनन्त आकाश ही है, वह अलोकाकाश है। लोकाकाश' शब्द की व्युत्पत्ति भी इसी आधार पर की गयी है-जिसमें धर्मादिद्रव्य देखे जाते हैं, पाये जाते हैं, वह लोक है और लोक सम्बन्धी आकाश लोकाकाश है। 'लोक' शब्द लुक् धातु से अधिकरण अर्थ में घञ्' प्रत्यय करने पर बनता है।” अलोकाकाश में कोई द्रव्य नहीं पाया जाता है। केवल आकाश द्रव्य ही पाया जाता है। लोकाकाश सीमासहित है और अलोकाकाश सीमा-रहित। धर्म द्रव्य नाम का द्रव्य लोक से बाहर नहीं पाया जाता, इसलिए लोक के बाहर जीव और पुद्गल द्रव्य नहीं जा सकते और इस अपेक्षा से लोक की एक सीमा बँध जाती है। लोक से बाहर अलोकाकाश में अनन्त आकाश ही आकाश है, जहाँ आकाश के अतिरिक्त और कोई द्रव्य नहीं पाया जाता। उसमें अन्य किसी द्रव्य का अस्तित्व नहीं है और न हो सकता है; क्योंकि वहाँ गमनागमन के साधनभूत धर्म द्रव्य का अभाव है। इसी विषय का विवेचन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है-'जीव, पुद्गल धर्म और अधर्म द्रव्य लोक से बाहर नहीं हैं और आकाश उस लोक के अन्दर भी है . और बाहर भी, क्योंकि उसका अन्त नहीं है। यदि अन्य दार्शनिकों द्वारा यह कहा जाय कि जीव और पुद्गलों के गमन और स्थिति के लिए धर्म और अधर्म द्रव्य को अलग से मानने की आवश्यकता नहीं है, इस आकाश द्रव्य को ही उनके गमन और स्थिति में कारण मान लिया जाए तो जैनाचार्य उन जैनेतर दार्शनिकों के इस कथन से सहमत नहीं हैं, क्योंकि यदि आकाश को अवगाह के साथ-साथ गमन और स्थिति का भी कारण मान लिया जाए तो ऊर्ध्वगमन करने वाले मुक्त जीव मोक्षस्थान में कैसे ठहर सकेंगे?" चूँकि भगवान् जिनेन्द्र ने मुक्त जीवों का स्थान ऊपरी लोक के अग्रभाग में बतलाया है, इसलिए . आकांश गमन और स्थिति का कारण नहीं माना जा सकता तथा यदि आकाश को जीव और पुद्गलों के गमन और स्थिति में भी कारण माना जाए तो ऐसा मानने से लोक की अन्तिम मर्यादा बढ़ती है और अलोकाकाश की हानि प्राप्त होती है, क्योंकि फिर तो जीव और पुद्गल गमन करते हुए आगे बढ़ते ही जाएँगे और ज्योंज्यों वे आगे बढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों लोक भी बढ़ता जाएगा और अलोक घटता नयवाद की पृष्ठभूमि :: 49 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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