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(4) देवगति-जब जीव देव शरीर को प्राप्त करता है तो उसको देवगति कहते हैं। देवगति में यह जीव पुण्य के फलस्वरूप अनेक प्रकार के भोग, सुन्दर ... व स्वस्थ शरीर, मनोहर देवांगनाएँ और उनके भोग तथा वैक्रियक शरीर सम्पन्न अनेक प्रकार का वैभव प्राप्त करता है। देवगति में भी यह जीव यदि सुविधाजन्य भोगों से पाप संचय करता है या उसका पुण्य क्षीण हो जाता है तो वहाँ से चलकर तिर्यंच गति में, एकेन्द्रिय स्थावर गति में भी पैदा हो जाता है, दुर्गतियों में परिभ्रमण करता है।
उक्त पंचेन्द्रिय जीवों के संज्ञी और असंज्ञी ये दो भेद भी होते हैं।
(1) संज्ञी पंचेन्द्रिय-हिताहित की परीक्षा तथा गुण-दोष के विचार करने को ' संज्ञा कहते हैं। इस प्रकार की संज्ञा जिनके पायी जाती है, वे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। इन जीवों के मन होता है जिसके द्वारा ये अपना भला-बुरा विचार सकते हैं। ये ही सैनी जीव कहलाते हैं। संज्ञी जीव पंचेन्द्रिय ही होते हैं। .
(2) असंज्ञी पंचेन्द्रिय-उक्त प्रकार की संज्ञा जिन जीवों के नहीं पायी जाती है वे असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। ये अपने भले-बुरे का विचार नहीं कर सकते हैं, ये ही असैनी जीव कहलाते हैं। कोई कोई जल में रहने वाले सर्प . पंचेन्द्रिय तो होते हैं किन्तु उनके मन न होने से असंज्ञी या असैनी होते हैं।
वैसे जीवराशि अनन्त है किन्तु विस्तार भय से उनके सभी के भेद-प्रभेद यहाँ नहीं दिये जा रहे हैं, अन्य सिद्धान्त-ग्रन्थों से जान लेना चाहिए।
अजीवद्रव्य स्वरूप और भेद-प्रभेद : जैसा कि पूर्व में कहा गया है। अजीव द्रव्य के पाँच भेद हैं-1.पुद्गल, 2. धर्म, 3. अधर्म, 4. आकाश, 5. काल।
(1) पुद्गल द्रव्य : व्युत्पत्तिपरक लक्षण–'पुद्गल' शब्द का प्रयोग भारतीय दर्शनों में से केवल जैनदर्शन में ही किया गया है। यह शब्द जैन पारिभाषिक है। पारिभाषिक होते हुए भी यह शब्द रूढ़ न होकर व्यौत्पत्तिक है। अन्य किसी भी दर्शन में इस शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। यद्यपि बौद्धदर्शन में इसका प्रयोग किया गया है, पर नितान्त अन्य ही अर्थ में। जीव के अर्थ में भी इसका प्रयोग मिलता है, पर वह बिल्कुल ही अनुपयुक्त प्रतीत होता है। सांख्यदर्शन में अचेतन प्रकृति का तथा आधुनिक विज्ञान में मैटर (Matter) का जो स्थान है वही स्थान जैनदर्शन में 'पुद्गल' का है। जैनदर्शन में प्रकृति के समस्त अचेतन, मूर्तिक पदार्थों को 'पुद्गल' कहा गया है। पूरण स्वभाव से 'पुत्' और गलन स्वभाव से 'गल' इन दो अवयवों के मेल से 'पुद्गल' शब्द बना है। वह द्रव्य जिसमें पहले पूरणबाह्य अंश के मिलने , बनने, एकत्रित होने और पश्चात् गलन (गलन) टूटने-फूटने,
30 :: जैनदर्शन में नयवाद
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