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ज्ञान-दर्शनादि गुण रूप है।
देहात्मवादी चार्वाक केवल शरीर को ही आत्मा मानता है। उसके मतानुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार ही भौतिक तत्त्व हैं । इन तत्त्वों का ज्ञान हमें प्रत्यक्ष रूप से इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होता है। संसार के जितने भी द्रव्य हैं वे सभी इन चार तत्त्वों से बने हुए हैं। आत्म द्रव्य भी इस भूतचतुष्टय के संयोग से उत्पन्न शक्ति-विशेष ही है। देहरूप से परिणत इन्हीं तत्त्वों से चैतन्य उत्पन्न होता है। जैसे कोद्रव, जौ, गुड आदि के संयोग से मादकशक्ति उत्पन्न हो जाती है। प्रत्येक द्रव्य में अविद्यमान भी चेतनता इन भूत चतुष्टय के संयोग से ही चैतन्यशक्ति उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार भूतचतुष्टय के संयोग से उत्पन्न शक्ति-विशेष या शरीरविशेष ही आत्मा है। शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं है। इन तत्त्वों के नष्ट हो जाने पर देहरूप आत्मा भी स्वयं नष्ट हो जाता है। इस प्रकार शरीर ही आत्मा है।"
जैनदर्शन के अनुसार यह मान्यता भी सदोष है। क्योंकि यदि भूत-चतुष्टय के संयोग से चैतन्य या जीव उत्पन्न होता है तो चूल्हे पर चढ़ी हुई पतेली आदि में दाल-चावल बनाते समय उसमें जल, अग्नि, वायु और पृथ्वी इन चारों तत्त्वों का संयोग है, वहाँ पर चैतन्य की उत्पत्ति क्यों नहीं हो जाती है? वहाँ भी चेतन. की उत्पत्ति होनी चाहिए, पर नहीं होती है। गुड आदि के सम्बन्ध में होने वाली अचेतन उन्मादिनी शक्ति का उदाहरण भी चेतन के विषय में लागू नहीं होता।
इसी प्रकार लोकायत चार्वाक इन्द्रियों को ही आत्मा मानता है तो प्राणात्मवादी चार्वाक प्राणों को ही, मन आत्मवादी चार्वाक मन को ही आत्मा कहता है तो योगाचार मतावलम्बी विज्ञानवादी बौद्ध बुद्धि को। प्रभाकर मतानुयायी मीमांसक के अनुसार अज्ञान ही आत्मा है तो कुमारिल भट्ट मतानुयायी मीमांसक के अनुसार अज्ञानोपहत चैतन्य ही आत्मा है।
इसी प्रकार व्यापक तथा अणु-आत्मवादी आत्मा को बड़े से बड़ा (व्यापक) और छोटे-से-छोटा (अणुरूप) मानते है। जैनदर्शन के अनुसार ये सब मान्यताएँ तर्क, अनुभव और आगम के विरुद्ध सिद्ध होती हैं।
जीव द्रव्य भेद-प्रभेद : जीव मूलत: दो प्रकार के होते हैं-1. संसारी और 2. मुक्त । कर्म बन्धन से युक्त अतएव जन्म-मरण धारण करने वाले जीव संसारी जीव कहलाते हैं और कर्मबन्धन से रहित अतएव जो संसार से छूट चुके हैं, जिन्हें जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा मिल चुका है, सिद्धगति को प्राप्त हो गये हैं वे मुक्त जीव हैं। मुक्त जीवों में तो कोई भेद नहीं होता। सभी सिद्ध गति को प्राप्त जीव समान गुण धर्म वाले होते हैं, किन्तु संसारी जीवों के अनेक भेद-प्रभेद होते
28 :: जैनदर्शन में नयवाद
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