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________________ नयवाद का दृष्टिकोण वैचारिक द्वन्द्व की समाप्ति का दृष्टिकोण है। इससे सभी विचारधाराओं का समन्वय सधता है । यह समन्वय का मार्ग एकांगी दृष्टिकोण, वैचारिक अभिनिवेश और मताग्रह से होने वाली हिंसा तथा प्रतिशोधभावना से मुक्ति देने वाला है । अध्यात्म के परिज्ञान तथा उसकी उपलब्धि के लिए भी स्याद्वाद और नयवाद की महती उपयोगिता है। यह आत्मा कर्मों के विलक्षण सम्बन्ध के कारण पर को निज मानता चला आ रहा है। इसी मान्यता के कारण ज्ञान - दर्शनस्वरूप आत्मा ने स्वकीय शुद्धात्मद्रव्य से च्युत होकर परद्रव्य के निमित्त से उत्पन्न रागद्वेष-मोह के साथ अभेद सम्बन्ध समझकर परद्रव्यों को अपना मान लिया है। यही मान्यता परसमय है और जब यह आत्मा समस्त पदार्थों के स्वरूप को अवगत करने वाले भेदज्ञान को प्राप्त कर लेता है, तो आत्मतत्त्व के साथ एकत्व की बुद्धि कर अपने चैतन्य स्वरूप में स्थित हो जाता है । इसी को स्वसमय कहते हैं । स्वसमय और परसमय ये दोनों आत्मा की दो पर्याय हैं। एक पर्याय पुद्गलकर्म के सम्बन्ध से है और दूसरी पर्याय चैतन्य स्वरूप की अवस्थिति की अपेक्षा से है। जब तक शरीर सम्बन्ध है, तब तक आत्मा को संसारी कहा जाता है और शरीर-सम्बन्ध का अभाव होने पर इसे सिद्ध । सामान्य रूप से आत्मा न सिद्ध है न संसारी, किन्तु स्वस्वरूप निमग्न है, क्योंकि वहाँ कोई संज्ञा ही नहीं है। ये आत्मा की दोनों अवस्थाएँ हैं और ये दोनों पर्यायदृष्टि हैं । द्रव्यदृष्टि से आत्मा नित्य, शुद्ध, अबद्ध, परिणमनशील है, उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य युक्त है। चैतन्यस्वरूप होने के कारण ही यह ज्ञान - दर्शन स्वरूप है। आत्मा दर्पणवत् है, इसकी स्वच्छता में समस्त पदार्थ प्रतिभासित होते हैं। इसका स्वभाव निर्मल है, कर्मजनित विकारों या विभावों से रहित है, संकल्पविकल्पों से मुक्त शुद्ध स्वरूप है । अतः स्वानुभूति द्वारा शुद्धात्म स्वरूप को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । स्वानुभूतिजन्य सुख अलौकिक, अनुपम, अतीन्द्रिय और निज स्वभाव रूप होता है। इससे परमशान्ति और अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है, किन्तु इसकी प्राप्ति तभी हो सकती है, जब आत्मशुद्धि हो और आत्मशुद्धि का सबसे प्रमुख साधन है आत्मसत्ता की आस्था के साथ स्व-पर के भेद को अवगत करना और स्व- पर भेदावगति नयों द्वारा हो सकती है अतः नयों का परिज्ञान आवश्यक है। नय-परिज्ञान के बिना जीवन में भेदज्ञान का प्रकाश उत्पन्न नहीं हो सकता और भेद विज्ञान का प्रकाश उत्पन्न न होने से हमारा आत्मा अज्ञानान्धकार में ही भटकता रहता है। भेद विज्ञान का दीपक प्रज्वलित होते ही अन्धश्रद्धा का 286 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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