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________________ आचार्य अमृतचन्द्र ने 47 नयों के रूप में उन 47 वचनमार्गों या अभिप्रायों को लिया है जो जैनेतर दार्शनिकों के अपने-अपने अलग मन्तव्य हैं; क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार 'जितने वचनमार्ग या अभिप्राय अथवा मन्तव्य होते हैं उतने ही नयवाद होते हैं और जितने नयवाद होते हैं उतने ही परसमय (परमत) हैं।'4 तात्पर्य यह है कि वक्ता के वचन या अभिप्राय एक से लेकर अनन्त तक हो सकते हैं, अतः नयवाद भी एक से लेकर अनन्त तक हो सकते हैं, किन्तु यदि उनमें परस्पर सापेक्षता है तो वे सुनय हैं और वस्तु-स्वरूप साधक हैं और यदि वे परस्पर निरपेक्ष हैं या एक दूसरे के प्रतिषेधक हैं तो वे दुर्नय हैं, मिथ्या हैं और वस्तु-स्वरूप विघातक हैं। ___अतः आचार्य अमृतचन्द्र ने उनके विवेचन से यह सिद्ध किया है कि यदि इन दार्शनिक मन्तव्यों का स्यात्' पद चिह्नित वाक्यों के साथ या 'स्यात् पद के साथ विवेचन किया जाय या अनेकान्तात्मक दृष्टि से उन्हें स्वीकार किया जाय तो वे यथार्थ में आत्मतत्त्व प्रतिपादक और आत्मसिद्धि विधायक सुनय हैं । इन सुनयों से ही आत्मस्वरूप का परिज्ञान हो सकता है। सन्दर्भ 1. कु. कु. प्रा. सं. की प्रस्तावना, पृ. 83 2. सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा। एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्य।।-स. सा, गा. 4 3. पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते। आ. प., सू. 214 4. तावन्मूलनयौ द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च।-आ. प., सू. 215 5. णिच्छयववहारणया मूलिमभेया णयाणसव्वाणं। ... णिच्छयसाहणहेउं पज्जयदव्वत्थियं मुणह ।।-न. च., गा. 182 6. अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः।-आ. प., सू. 204 7. भेदोपचारतया वस्तु व्यवह्रियत इति व्यवहारः।-आ. प., सू. 205 8. तत्र निश्चयनयोऽभेदविषयो व्यवहारो भेदविषयः।-आ. प., सू. 216 9. शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनय......अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारनयः । प्र. सा., गा. 189 की त. दी. टीका 10. आत्माश्रितो निश्चयः पराश्रितो व्यवहारनयः।-स. सा., गा. 272 की आ. ख्या. टीका 11. ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो हु सुद्धणओ। . भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो।।-स. सा., गा. 11 12. निश्चयमिह भूतार्थं व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम्।-पु. सि., श्लो. 5 13. स. सा., गाथा 11 की आ. ख्या. टीका 14. जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठमणण्णयं णियदं। _अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणाहि। स. सा., गा. 14 नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 279 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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