SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करे या अपने भोगोपभोग में व्यय करे । देवदत्त के धन को व्यय करने का देवदत्त के अतिरिक्त अन्य किसी पुरुष को अधिकार नहीं है । देवदत्त के दिये बिना यदि देवदत्त के धन को कोई अन्य पुरुष ग्रहण करता है तो वह चोर है, क्योंकि 'अदत्तदानं स्तेयम्'' ऐसा आर्ष- वाक्य है इसी प्रकार ज्ञान - ज्ञेय सम्बन्ध भी इस उपचरित असद्भूत व्यवहार नय का विषय है, क्योंकि ज्ञान का स्वचतुष्टय भिन्न है और ज्ञेय - द्रव्यों का स्वचतुष्टय भिन्न है। ज्ञान और ज्ञेय में संश्लेष सम्बन्ध भी नहीं है तथापि ज्ञान ज्ञेयों को जानता है और ज्ञेय ज्ञान के द्वारा जाने जाते हैं । अतः ज्ञान- ज्ञेय सम्बन्ध यथार्थ है जो कि उपचरित असद्भूत व्यवहारनय का विषय है। यदि ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध यथार्थ न हो तो सर्वज्ञता का अभाव हो जायेगा। इसी प्रकार अन्य सम्बन्धों के विषय में भी जानना चाहिए । व्यवहारनय के उक्त भेद-कथन का निष्कर्ष यह है कि व्यवहरण करना अर्थात् किसी वस्तु में भेद करना व्यवहारनय है । वस्तुस्वभाव का विश्लेषण किया जाय तो वह अभिन्न और अखण्ड है, उसमें कोई भेद नहीं है, किन्तु उसके स्वरूप को समझने के लिए कथन करने में भेद करना पड़ता है। इसलिए इस नय के सद्भूत आदि उपर्युक्त चार भेद किये गये हैं । वास्तव में व्यवहारनय वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं कहता है इस कारण वह परमार्थ नहीं,है। जैसे - यद्यपि 'सत्' अभिन्न और अखण्ड है, किन्तु जब उसका प्रतिपादन किया जाता है तब इतना तो कहना ही पड़ता है कि यह गुण है और यह गुणी (द्रव्य) है। यह सत् है और इसमें सत्त्व है। इस प्रकार गुण - गुणी का भेद करना इस नय का विषय है, किन्तु यदि वस्तुस्वरूप पर विचार किया जाय तो क्या वस्तु गुण-गुणी का भेद है? क्या वस्तु के दो आधार हैं ? जैसे- घड़े में चने भरे हुए हैं तो चनों का स्वरूप चनों में है, घड़े का स्वरूप घड़े में है। दोनों अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न सत्ता लिए हुए हैं, फिर भी उनका सम्बन्ध बताया जाता है कि ये चने इस घड़े में हैं, किन्तु इस प्रकार की स्थिति गुण - गुणी की नहीं है । . वहाँ तो सब एक ही हैं । अभिन्न और अखण्ड हैं। केवल व्यवहार में कथन करने के लिए गुण- गुणी का भेद किया जाता है, वास्तव में भेद नहीं है । इस प्रकार व्यवहारनय अखण्ड वस्तु में भेद करके उसका प्रतिपादन करता है । इसीलिए उसे परमार्थ या सत्यार्थ नहीं कहा जाता है। फिर भी वह वस्तुस्वरूप का साधक है। व्यवहारनय के विषय में यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि व्यवहार शब्द का प्रयोग व्यवहारनय नामक द्रव्यार्थिकनय, भेदविषयक व्यवहारनय, नयविषयप्रतिपादक व्यवहार व उपचार इन चार स्थलों पर होता हैं अतः जहाँ नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 275 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy