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________________ इनमें निश्चय और व्यवहारनय ये दो भेद ही दृष्टिगत होते हैं तथा पंचास्तिकाय और प्रवचनसार में आध्यात्मिक दृष्टि के साथ सैद्धान्तिक या शास्त्रीय दृष्टि को भी प्रश्रय दिया है। इसलिए इन ग्रन्थों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों का भी वर्णन . प्राप्त होता है। ___ इस आध्यात्मिक दृष्टि का महत्त्वपूर्ण विवेचन ‘कुन्दकुन्द प्राभृत' संग्रह की प्रस्तावना में किया गया है-'आध्यात्मिक दृष्टि के द्वारा आत्मतत्त्व को लक्ष्य में रखकर वस्तु का विचार किया जाता है। जो आत्मा के आश्रित हो उसे अध्यात्म कहते हैं। जैसे वेदान्ती ब्रह्म को केन्द्र में रखकर जगत् के स्वरूप का विचार करते हैं वैसे ही आध्यात्मिक दृष्टि आत्मा को केन्द्र में रखकर विचार करती है। जैसे वेदान्त में ब्रह्म ही परमार्थ सत् है और जगत् मिथ्या है, वैसे ही अध्यात्म विचारणा में एक मात्र शुद्ध-बुद्ध-अबद्ध आत्मा ही परमार्थ सत् है और उसकी अन्य सब दशाएँ व्यवहार सत्य हैं। इसी से शास्त्रीय क्षेत्र में जैसे वस्तुतत्त्व का विवेचन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के द्वारा किया जाता है वैसे ही अध्यात्म में निश्चय और व्यवहारनय के द्वारा आत्मतत्त्व का विवेचन किया जाता है और निश्चय दृष्टि को परमार्थ और व्यवहार दृष्टि को अपरमार्थ कहा जाता है, क्योंकि निश्चय दृष्टि आत्मा के यथार्थ शुद्ध स्वरूप को दिखलाती है और व्यवहार दृष्टि अशुद्ध अवस्था को दिखलाती है। अध्यात्मी मुमुक्षु शुद्ध आत्मतत्त्व को प्राप्त करना चाहता है अतः उसकी प्राप्ति के लिए सबसे प्रथम उसे उस दृष्टि की आवश्यकता है जो आत्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन करा सकने में समर्थ है। ऐसी दृष्टि निश्चय दृष्टि है अतः मुमुक्षु के लिए वही दृष्टि भूतार्थ है और जिससे आत्मा के अशुद्ध अवस्था स्वरूप का दर्शन होता है वह व्यवहारदृष्टि उसके लिए कार्यकारी नहीं है।" । ___ उक्त कथन का निष्कर्ष यही है कि अपने विशुद्ध स्वरूप को समझने के लिए निश्चय दृष्टि की ही आवश्यकता है। जब तक हम बाह्य भौतिकवाद में भटकते रहेंगे, पर को अपना मानते रहेंगे तब तक आध्यात्मिकता के प्रशस्त मार्ग को प्राप्त नहीं कर सकते। यह आध्यात्मिकता कहीं बाहर से आने वाली नहीं है, यह तो हमारे आत्मा का धर्म या गुण है और यह धर्म दृष्टि को निर्मल बनाने से या निश्चयपरक बनाने से प्राप्त हो सकता है। वास्तव में यह संसारी आत्मा अनादि काल से इस संसार में ही परिभ्रमण करता हुआ अनेक कष्टों को उठा रहा है। नरकादि चतुर्गतियों में जन्म-मरण के दुःखों को भोग रहा है। अब तक इसने पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, शुभाशुभ कर्मों की कथनी को ही सुना और जाना है, स्व (शुद्धात्मा) से भिन्न पर (बाह्य पदार्थों के 252 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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