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________________ प्रकृति और प्रत्यय के द्वारा सिद्ध अर्थात् निष्पन्न शब्द को मुख्यकर विषय करता है वह शब्द नय है। यहाँ 'शब्द' की व्युत्पत्ति की गयी है कि 'शपत्यर्थमाह्वयति. प्रत्याययतीति शब्दः' अर्थात् जो पदार्थ को बुलाता है, उसे कहता है या उसका निश्चय कराता है उसे शब्दनय कहते है। यह नय काल, कारक (विभक्ति), लिंग, संख्या (वचन), पुरुष (साधन) और उपसर्ग (उपग्रह) के भेद से शब्दभेद होने पर उनके भिन्न-भिन्न अर्थों का प्रतिपादन करता है। जैसे-सुमेरु था, सुमेरु है, सुमेरु होगा। यहाँ शब्दनय भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल के भेद से सुमेरु पर्वत के तीन भेद मानता है। इसी प्रकार 'घड़े को करता है' और 'घड़ा किया जाता है'-यहाँ कारक के भेद से शब्दनय घड़े के दो भेद करता है। __शब्दनय ऋजुसूत्र के द्वारा ग्रहण किए हुए वर्तमान को विशेषरूप से मानता है। ऋजुसूत्र नय लिंगादि का भेद होने पर भी उसकी वाच्य पर्यायों को एक ही मान लेता है, परन्तु शब्दनय उन्हें एक न मानकर भिन्न-अर्थवाली मानता है। जैसेतट:-तटी-तटम्-यहाँ लिंगभेद हैं। देव:-देवी-देवा:-यहाँ एक-द्वि-बहुवचनरूप संख्याभेद है। 'स गच्छति, त्वं गच्छसि, अहं गच्छामि'-यहाँ प्रथम-मध्यमउत्तमपुरुषरूप पुरुष-भेद है। प्रकाश-विकास-संकाश आदि शब्दों में ' प्र-वि-सं' आदि उपसर्गों का भेद है। सभी जगह इस शब्दनय की अपेक्षा से अर्थ-भेद माना जाता है। वास्तव में यह नय शब्द-प्रधान है। वैयाकरणों के व्यवहार के अनुसार कालादि का भेद होने पर भी अर्थ-भेद नहीं होता है, यह मान्यता शब्दनयाभास है और यह शब्दनय की दृष्टि से दोष है। शब्दनय 'कालादि के भेद से अर्थभेद होता है' इस दृष्टि को स्वीकार कर उक्त दोष का परिहार करता है। यह श्रुतज्ञान विशेष का कार्य होने पर भी शब्द प्रधान होने से शब्दनय कहा जाता है। यह नय लोक-विरोध और व्याकरण विरोध की चिन्ता नहीं करता। सारांश यह है कि इस नय के अनुसार काल-भेद होने पर भी अर्थ-भेद न मानने पर बड़ा दोष आता है। अतीत का रावण और भविष्य में होने वाला शंखचक्रवर्ती भी एक हो जाएँगे। __(6) समभिरूढ नय और समभिरूढ नयाभास 6–शब्द भेद से जो नाना अर्थों में अभिरूढ़ है अर्थात् जो शब्दभेद से अर्थभेद मानता है उसे समभिरूढ नय . कहते हैं अथवा पर्यायवाची शब्दों में निरुक्ति के भेद से भिन्न अर्थ को मानने वाले नय को समभिरूढनय कहते हैं। यह नय कहता है कि जहाँ शब्द भेद है, वहाँ अर्थ भेद अवश्य होता है। शब्दनय तो अर्थ-भेद वहीं मानता है, जहाँ लिंगादि का भेद हो, परन्तु इस नय की दृष्टि में प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न होता है। दो शब्द 242 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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