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________________ है। जिस समय जिस धर्म की विवक्षा होती है उस समय वह धर्म मुख्य या प्रधान हो जाता है और अन्य धर्म गौण हो जाते हैं। वक्ता यदि द्रव्यार्थिक नय या द्रव्यदृष्टि से वस्तु का प्रतिपादन करता है तो नित्यता विवक्षित या मुख्य रहती है और अनित्यता अविवक्षित या गौण हो जाती है तथा यदि पर्यायार्थिक नय या पर्याय दृष्टि से प्रतिपादन करता है तो अनित्यता विवक्षित या मुख्य रहती है और नित्यता अविवक्षित या गौण हो जाती है। जिस समय किसी पदार्थ को द्रव्य या स्वरूप की अपेक्षा से नित्य कहा जा रहा है उसी समय वह पदार्थ पर्याय की अपेक्षा से अनित्य भी है। इसप्रकार एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले नित्यत्व अनित्यत्व आदि धर्मों की सत्ता स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं आता है। जो वस्तु एक दृष्टि से अस्तिरूप, एकरूप और नित्य रूप है वही वस्तु दूसरी दृष्टि से नास्ति रूप, अनेक रूप और अनित्य रूप भी है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए एक और उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता ____ एक बहुत बड़ा दार्शनिक विद्वान् था, जो निरन्तर चिन्तन, मनन और अध्ययन में संलग्न रहा करता था। उसे बाहर की, यहाँ तक कि अपनी गृहस्थी और अपने खाने पीने की भी कोई चिन्ता नहीं रहती थी। एक कमरे में बन्द रहा करता था, किसी से मिलता-जुलता भी नहीं था। एक दिन उसकी पत्नी ने झुंझलाकर पूछाक्या मामला है ? इतना एकान्तवास और ज्ञानार्जन करके क्या किया? और क्या करोगे? दार्शनिक ने सौम्यभाव से कहा-अच्छा प्रिये! आओ। चलो। आज घूमने चलें, वहीं तुम्हारे इस गम्भीर प्रश्न का उत्तर देंगे। दोनों चल दिये घूमने। घूमतेघूमते पहुँचे गंगा-किनारे। गंगा-किनारे खड़े होकर दार्शनिक ने पूछा-प्रिये बताओ-हम दोनों इस पार हैं या उस पार? वह बोली-इस पार। उसने फिर पूछा-प्रिये! जरा सोचो और बताओ कि हम दोनों इस पार हैं या उस पार? वह बोली-इसमें सोचना-विचारना क्या है ? यह तो स्पष्ट ही दिख रहा है कि हम लोग इस पार हैं। वह बोला अच्छा। आओ, बैठो इस नौका में, चलो चलें उस पार। पहुँचे उस पार। दार्शनिक ने फिर वही पूछा-प्रिये। अच्छा। अब बताओ? हम दोनों इस पार हैं या उस पार? उसने फिर वही उत्तर दिया-इस पार। तब वह बोला-अरे! जब हम दोनों वहाँ थे, तब कह रहीं थीं कि 'इस पार' और जब हम दोनों यहाँ हैं, तब भी वही कह रही हो, 'इस पार'। क्या बात है? समझी कुछ। वास्तव में यह न 'इस पार' है, न उस पार', किन्तु विचार करने पर उस पार की अपेक्षा यह पार 'इस पार' है और इस पार की अपेक्षा वह पार भी 'इस पार' है। नयों का समन्वयवादी दृष्टिकोण :: 209 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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