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________________ है। इन तीनों व्यक्तियों का एक स्वर्ण घट के आश्रय से होने वाला यह कार्य अहेतुक नहीं हो सकता। इससे सिद्ध होता है कि स्वर्ण की घट - पर्याय का नाश और मुकुट पर्याय की उत्पत्ति होने पर भी स्वर्ण का न तो नाश होता है और न उत्पाद ही । स्वर्ण तो घट, मुकुट आदि प्रत्येक अवस्था में स्वर्ण ही बना रहता है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु त्रयात्मक ही है ।" एक दूसरे उदाहरण द्वारा भी इसी विषय को स्पष्ट किया गया है - जिसने दूध पीने का व्रत लिया है, वह दही नहीं खाता, जिसने दही खाने का व्रत लिया है, वह दूध नहीं पीता और जिसने गोरस के सेवन नहीं करने का व्रत लिया है, वह दूध और दही दोनों का उपयोग नहीं करता। इससे सिद्ध है कि वस्तु त्रयात्मक है, युगपत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों रूपों से युक्त है । 12 एक ही वस्तु में प्रतीति का नानापन उस वस्तु के विनाश, उत्पाद और स्थिति (ध्रौव्य) का साधक जान पड़ता है। जो दूध रूप से नाश को प्राप्त हो रहा है वही दधिरूप से उत्पद्यमान और गोरस रूप से विद्यमान (ध्रौव्य) है; क्योंकि दूध और दही दोनों ही गोरस रूप हैं। गोरस की एकता होते हुए भी जो दधिरूप है वह दुग्ध रूप नहीं, जो दुग्ध रूप है वह दधिरूप नहीं; ऐसा व्रतियों के द्वारा द्रव्य-पर्याय की विभिन्न प्रतीतिवश भेद किया जाता है। यदि प्रतीति में त्रिरूपता न हो तो एक के ग्रहण में दूसरे का त्याग नहीं बनता । इस तरह वस्तु तत्त्व के त्रयात्मक साधन द्वारा उसका प्रस्तुत नित्य - अनित्य और उभय साधन भी विरोध को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि एक ही वस्तु में स्थिरता के व्यवस्थापन द्वारा कथंचित् नित्यत्व और नाशोत्पाद के प्रतिष्ठापन द्वारा कथंचित् अनित्यत्व सिद्ध होता है और इसलिए यह ठीक ही कहा जाता है कि सम्पूर्ण वस्तु समूह कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है। वस्तु के उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यत्व अथवा नित्यत्व अनित्यत्व का कथन महर्षि पतंजलि ने भी किया है। उन्होंने लिखा है— 'द्रव्य नित्य है और आकृति अर्थात् अवस्था अनित्य है। स्वर्ण का एक आकार पिण्ड है, उसका विनाश कर माला बनाई जाती है, माला का विनाश कर कड़े बनाये जाते हैं, कड़ों को तोड़कर स्वस्तिक बनाये जाते है । फिर घूम-फिर कर स्वर्ण पिण्ड हो जाता है। फिर उसके विवक्षित आकार खदिर के अंगार के समान दो कुण्डल हो जाते हैं। इस प्रकार एक के बाद दूसरा आकार होता रहता है; परन्तु द्रव्य वही रहता है। आकार का नाश करने से एक मात्र द्रव्य ही शेष रहता है। 113 कुमारिल भट्ट मीमांसक ने भी जैन दर्शन की उक्त त्रयात्मकता का उल्लेख नयों का समन्वयवादी दृष्टिकोण :: 207 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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