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अवक्तव्य कहते हैं। सप्तभंगी के मूल ये ही चार भंग हैं। इन्हीं के संयोग से सात भंग बनते हैं। अर्थात् चतुर्थ भंग, 'स्यात् अवक्तव्य' के साथ प्रथम भंग ‘स्यात् . अस्ति' मिलाने से पाँचवाँ भंग 'स्याद् अस्ति अवक्तव्य', द्वितीय भंग ‘स्यात् नास्ति' मिलाने से छठा भंग ‘स्यात् नास्ति अवक्तव्य' और तृतीय भंग ‘स्याद् अस्तिनास्ति' मिलाने से सातवाँ भंग ‘स्याद् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य' बनता है। इस प्रकार उक्त क्रम से ये सात भंग बनते हैं किन्तु भंगों के क्रम के विषय में अनेक आचार्यों में भिन्नता भी पाई जाती है
सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द,282 उमास्वामी,283 समन्तभद्र,284 सिद्धसेन,285 जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण,286 अकलंकदेव287 ने अपने आगम ग्रन्थों में 'अवक्तव्य भंग' को तीसरे और 'अस्ति-नास्ति भंग' को चौथे स्थान पर रखा है जबकि उन्हीं आचार्यों कुन्दकुन्द,288 समन्तभद्र,289 अकलंकदेव20 और विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, वादिराज सूरि293 वादिदेव सूरि,294 मल्लिषेण सूरि295 तथा विमलदास आदि ने 'अस्ति-नास्ति' भंग को तीसरा और 'अवक्तव्य' भंग को चौथा स्थान दिया है। जैसा उल्लेख किया गया है इनमें से आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र और अकलंकदेव ने भंगों के दोनों ही क्रमों को अपनाया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार' : (गाथा 115) में सप्तभंगी का उल्लेख करते हुए 'अवक्तव्य' को तृतीय और 'अस्ति-नास्ति' को चतुर्थ भंग माना है, किन्तु अपने ही पंचास्तिकाय (गाथा 14) में 'अस्ति-नास्ति' को तीसरा और 'अवक्तव्य' को चौथा भंग कहा है। आचार्य समन्तभद्र ने भी अपने ‘युक्त्यनुशासन' (श्लोक 45) में अवक्तव्य' को तीसरे और 'अस्ति नास्ति' को चौथे स्थान पर रखा है जबकि अपनी 'आप्तमीमांसा' (कारिका 14) में 'अस्ति नास्ति' भंग को तीसरा और 'अवक्तव्य' भंग को चौथा स्थान दिया है। अकलंकदेव ने अपने 'राजवार्तिक' में दो स्थलों पर सप्तभंगी का कथन किया है। इनमें से एक स्थल पर 'अवक्तव्य' को तीसरी और 'अस्ति-नास्ति' को चौथी संख्या दी है, किन्तु इसके 1/6 वा. 5 की विवृति में 'अस्ति-नास्ति' को तीसरे
और 'अवक्तव्य' को चौथे स्थान पर रखा है। इसी तरह इन्होंने अपने 'प्रमाण संग्रह', श्लोक 73, 74, पृ. 122 में तो 'अवक्तव्य' को तीसरा और 'अस्तिनास्ति' को चौथा भंग कहा है किन्तु अपने 'न्याय विनिश्चय' श्लोक 66 'अस्तिनास्ति' को तीसरा और 'अवक्तव्य को चौथा भंग निरूपित किया है। इस प्रकार अनेक आगम-ग्रन्थों में भंगों का यह क्रम-भेद होने पर भी सप्तभंगी के अर्थ में कोई अन्तर नहीं पड़ता।
सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर 'स्यादस्ति', स्यात् नास्ति' और 'स्याद् अवक्तव्य' यह क्रम ही ठीक प्रतीत होता है और ये तीन ही मूल भंग प्रमाणित
174 :: जैनदर्शन में नयवाद
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