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________________ अनेकान्त सिद्धान्त की बड़ी उपयोगिता है। जीवन और जगत के जितने भी व्यवहार हैं वे सब अनेकान्तमूलक हैं। अनेकान्त के बिना जीवन जगत् का व्यवहार नहीं चल सकता। जीवन के प्रत्येक पहलू को समझने के लिए अनेकान्त की महती आवश्यकता है। इसकी उपयोगिता मात्र दार्शनिक क्षेत्र में ही हो ऐसी बात नहीं है, इसके बिना हमारा लोक-व्यवहार भी नहीं सधता। पद पद पर इसके अभाव में विसंवाद, युद्ध, संघर्ष की सम्भावना है। अतएव आचार्य सिद्धसेन ने ठीक ही कहा है-'जिसके बिना लोक-व्यवहार भी सर्वथा नहीं चल सकता, तीनों लोकों के उस अद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार हो।250 अनेकान्तवाद परमागम अर्थात् जैन सिद्धान्त का जीवन है। यदि वह परमागम में न रहे तो सारा परमागम पाखण्ड हो जाय। इसे हम परमागम का बीज भी कह सकते हैं; क्योंकि इसी से सारे परमागम की शाखा-प्रशाखाएँ ओतप्रोत हैं। अनेकान्त जगत् के समस्त विरोधों को दूर करने वाला है। वह सम्पूर्ण नयों (सम्यग् एकान्तों) से विलसित है और जन्मान्ध पुरुषों के हस्ति-विधान (एकान्त दृष्टि) का निषेध करने वाला है। इन्हीं सब विशेषताओं के कारण उस अनेकान्त को आचार्य अमृतचन्द्र ने भी नमस्कार किया है। यहाँ जन्मान्ध पुरुषों के हस्ति-विधान के उल्लेख से यह स्पष्ट किया गया है कि किसी वस्तु या बात को ठीक-ठीक न समझकर उसके विषय में अपने हठपूर्ण विचार या एकान्त अभिनिवेश बनाने से बड़े-बड़े अनर्थों की सम्भावना रहती है। अनेकान्तवाद इन अनर्थों से बचने के लिए ही एकान्त अभिनिवेशों में समन्वय स्थापित कर तज्जन्य समस्त विरोधों को दूर करता है और वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान कराता है। अतः अनेकान्तवाद को स्पष्ट समझने के लिए ही जन्मान्ध पुरुषों का उदाहरण दिया गया है-एक गाँव में छह जन्मान्ध पुरुष रहते थे। उन्होंने हाथी का नाम तो सुना था किन्तु जन्मान्ध होने के कारण उसे देखा नहीं था अतः उसके विषय में उन्हें जिज्ञासा हुई। जैसे ही गाँव में अचानक एक हाथी आया और उसके आने का शोर मचा तो वे सभी अन्धे भी उसके नजदीक पहुँचे और सभी ने अलग-अलग रूप से उसके अंगों का स्पर्श किया। पश्चात् वे एक साथ बैठ कर हाथी का वर्णन करते हुए झगड़ने लगे। उनमें से जिसने हाथी के पैर का स्पर्श किया था, वह कहने लगा-अरे भाई! हमने हाथी को ठीक समझ लिया, वह तो खम्भे जैसा होता है। जिसने उसके पेट को टटोला था वह एकदम बोला-नहीं। तुम झूठ बोलते हो, तुम्हें कुछ भी ज्ञान नहीं। हाथी खम्भे जैसा नहीं होता वह तो अनाज भरने के कुठीले जैसा होता है। जिसने कान पकड़ा था, वह छूटकर आवेश में बोला-हटो! तुम दोनों ही मूर्ख हो। हाथी न खम्भे जैसा होता है और न कुठीले जैसा होता है वह तो सूप जैसा होता है। तत्त्वाधिगम के उपाय :: 153 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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