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हिंसा अनुबंध हिंसा कहलाती है। इसका त्याग जरूरी है ।
(२) हेतु हिंसा - भोजन बिना चल नहीं सकता, पीने के लिये पानी चाहिये । रसोई बनाने के लिये अग्नि की हिंसा करनी पड़ती है। यह सब जीने के लिये जरूरी हिंसा है वह हेतु हिंसा कहलाती है। इस हिंसा में दुःख होता है कि मैं मोक्ष में नहीं गया इसलिये मुझे खाना और पीना पड़ रहा है। इस प्रकार हृदय में अपार दुःख हो तो हिंसा होती हैं, फिर भी पाप कम लगता है ।
(३) स्वरूप हिंसा - पूजा के लिये स्नान करते हैं । व्याख्यान के लिये जाते हैं, गुरू वंदन के लिये जाते हैं इन सभी में हिंसा दिखती है लेकिन हिंसा का भाव न होने से पाप नहीं लगता। कमाने के लिये पहिले इनवेस्टमेंट तो करना पड़ता है न? उसी प्रकार भाव शुद्धि के लिये पूजा है उसमें हिंसा होती है मगर पाप का बंध नहीं होता ।
गुड नाईट - 39
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