SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ चौदह राजलोक विश्व के अंदर रहे हुए ६ द्रव्यों में से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का विशेष वर्णन करके अब हम आकाशास्तिकाय का वर्णन करते हैं। आकाशास्तिकाय यानी आकाश । उसके दो भेद होते हैं । (१) लोकाकाश यानी लोक (२) अलोकाकाश यानी अलोक । जब कोई आदमी दो पैर फैला कर दो कोनिया मोडकर, कमर पर हाथ रखकर खड़ा रहता है, तब वैशाखी संस्थान बनता है । वह लोक का आकार है। लोक :- यह लोक १४ राज ऊंचा है । सब से नीचे गोलाकार के रुप में ७ राज लम्बा चौड़ा है । वहाँ से ऊपर की ओर क्रमशः घटता हुआ ७ राज तक आते हैं, तब ओक राज लंबा चौड़ा हो जाता है । यहाँ से ऊपर की ओर क्रमशः बढता हुआ ३-राज जाने पर ५ राज लम्बा चौडा हो जाता है । उसके बाद क्रमश: घटता हुआ ३ राज, जाने पर १ राज हो जाता है । इस लोक की ऊंचाई ७ + ३. ३% १४ राज है । यह सारा लोक गोलाकार है । लोक के अंतिम किनारे पर निष्कुट यानी दंताली जैसे खांचे होते हैं। प्रश्न :- राज किसे कहते हैं ? उत्तर :- कल्पना कीजिए कि कोई ओक देव २० हजार मण का लोहे का अक जबरदस्त गोला खुब शक्ति लगाकर ऊपर से जमीन पर फेंके, तो उसे जमीन पर पहुँचते ६ महीने लग जाये, इतनी दूरी को एक राज कहते हैं । ओक राज में असंख्यात योजन होते हैं । त्रसनाडी :- इस लोक के मध्य में १४ राज ऊंची व १ राज लम्बी चौडी गोलाकार त्रसनाडी है । उसमें त्रस व अकेन्द्रिय जीव रहते हैं । शेष लोक में एकेन्द्रिय जीव ही रहते हैं । तीन लोक :- (१) तिर्यग्लोक = मध्यलोक (२) अधोलोक (३) ऊर्ध्वलोक । चित्रमय तत्वज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004222
Book TitleChitramay Tattvagyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy