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मेवाड़ के जैन तीर्थ भाग 2
प्रस्तावना
प्रगटे परम निधान प.पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजयकल्याणबोधिसूरीश्वरजी महाराज
छोटा सा पिन्टू, स्कूल से घर आया, सीधा आलमारी के पास गया, अपना गल्ला निकालकर बैठ गया, बड़े आनन्द से रूपये गिनने लगा, ईनाम के, प्रभावना के, भेंट के.... उसके अपने रूपये थे, गिन कर खुश होकर वापस रख दिये।
रात को 9.30 बज गये, अन्तिम ग्राहक ने बिदाई की, दुकानदार कुन्दनमलजी ने शटर गिरा कर सारे दिन का मुनाफा गिन लिया। हँसते मुँह घर की ओर चल दिये।
60 साल के मिश्रीमलजी.....बैंक में लॉकर की चाबी लेकर निकल पड़े। बैंक में जाकर सब पूंजी देख कर फिक्स डिपोजिट, नकद, जेवर, शेयर सब कुछ जी भर के जाँच लिया। प्रसन्नतासे वापस लौट आये।
बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक सभी जन अपने वैभव के प्रति अति जागृत होते है। कोई ऐसा नहीं सोचता कि 'ठीक है, जितने पैसे हैं, उतने ही रहने वाले हैं, निरीक्षण से वृद्धि भी नहीं होगी और उपेक्षा से हानि भी नहीं होगी। एक सत्य यह है कि प्रेम पात्र वस्तु का निरीक्षण किये बिना चैन न आता, तो एक सत्य यह भी है कि मूल्यवान वस्तु की उपेक्षा हमें उससे वंचित कर देती है।
ज्ञातव्य है कि भौतिक वस्तु से वंचित रहने में इतना नुकसान नहीं है जितना नुकसान आध्यात्मिक संपति से वंचित रहने में है। हमारी आध्यात्मिक संपति है गुण वैभव एवं गुणवैभव की प्राप्ति हेतुधर्म स्थान।
__ पैसा, परिवार, घर, दुकान, गाड़ी इन सब पर हमारा ममत्व भाव है, यह सब हमें मेरा' लगता है। अत: हम इसका पूरे दिल से देखभाल करते रहते हैं। हम इसे अपना कर्तव्य भी समझते हैं। किन्तु ज्ञानी भगवंत कहते है इस ममत्वभाव से ही तू संसार में भटक रहा है। मोह राजा ने अहंकार एवं ममकार के धागेसे ही तुझे कठपुतली बना रखा है।
अहं ममेति मन्त्रोदयं मोहस्य जगदान्ध्यकृत । मोहराज का एक ही मंत्र है - मैं और मेरा इसी मंत्र ने समग्र विश्वको अंध बना दिया है। (ज्ञानसार4-2)
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