SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 21. मुनि श्री जिनहर्ष गणि इन्होंने सं. 1497 में चित्तौड़ चार्तुमास की अवधि में वस्तुपालचरित्र नामक काव्य की रचना की । - 22. मुनि श्री वाचक सोम देव ये सोमसुन्दर सूरि के महान शिष्य विद्वान् थे, इन्हें महाराणा कुम्भा ने कविराज की उपाधि से विभूषित किया। इनकी विद्धता की समानता सिद्धसेन दिवाकर से की जाती है। 23. 24. 25. 26. 27. मेवाड़ के जैन तीर्थ भाग 2 मुनि श्री विशालराज - इन्होंने चित्तौड़ में सं. 1497 में ज्ञान प्रदीप ग्रन्थ रचा । मुनि श्री ऋषिराज ये जयकीर्ति सूरि के शिष्य थे। इन्होंने चित्तौड़ में सं. 1512 में नलराज ऊपई (नलदमयंती रास) की रचना की । मुनि श्री ऋषि धनराज - इन्होंने चित्तौड़ नगर में अनंत चौबीसी की रचना की। मुनि श्री रामकीर्ति - ये दिगम्बर साधु थे। इन्होंने समिद्धेश्वर की प्रशस्ति की रचना की। श्री सुन्दरसूरि - इन्होंने देलवाड़ा में संतिकर स्त्रोत की रचना की। इसके अतिरिक्त अध्यात्म कल्पद्रुम त्रिदशतरंगिणी, उपदेश रत्नाकर स्त्रोत, रत्नकोण, पाक्षिक सित्तरी आदि प्रमुख रचना लिखी है । मेवाड़ में स्थापित मंदिरों की संख्या असंख्य कह सकते हैं। केवल चित्तौड़ में ही अनेक मंदिर थे । सन् 1608 के फरवरी माह में जब औरंगजेब ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया तब करीब 69 मंदिरों को नष्ट किया। इससे यह अन्दाजा लगाया जा सकता है। कि चित्तौड़ व मेवाड़ में कितने मंदिर रहे होंगे। इन सभी तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि मेवाड की संस्कृति 4000 वर्ष से अधिक प्राचीन है, जहाँ पर जैन धर्म विकसित था। दुर्ग का निर्माण चौथी शताब्दी में होना स्पष्ट है । Jain Education International यद्यपि मेवाड़ के शासक शैव के उपासक थे वरन् उनके हाथ जैनी थे अर्थात शासन प्रबन्ध में सभी मुख्य पद व प्रबन्ध जैनियों द्वारा होता था अतः यह कहा जा सकता है कि राजा की आत्मा शैव की थी तो शरीर जैन का था । मेवाड़ भूमि इतनी सौभाग्यशाली रही है जहाँ जैन तीर्थकर श्री नेमीनाथ, श्री पार्श्वनाथ व श्री महावीर के चरण पादुका से पावन हुई है। आवश्यक चूणिकाए के अनुसार भगवान महावीर के प्रथम गणधर भी अपने शिष्यों के साथ मेवाड़ में आने का उल्लेख है । For Personal Prite Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004220
Book TitleMewar ke Jain Tirth Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Bolya
PublisherAthwa Lines Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy