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आहाड़ संस्कृति के 106 स्थानों से जिसमें से 38 स्थान चित्तौड़ क्षेत्र के पाषाण लिए उसका अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हुआ कि यह संस्कृति 4000 वर्ष से अधिक प्राचीन है। आहाड़ संस्कृति को 4000 वर्ष प्राचीन होने का प्रमाण हेतु सर्वेक्षण ऐतिहासिक विभाग के डॉ. रतनचन्द अग्रवाल ने आहाड़ क्षेत्र का उत्खनन कर सिद्ध किया। इस संबंध में पाषाण, ताम्र धातु के उपकरण, कृषि उपयुक्त उपकरण तैयार करते थे एवं कृषि करने की कला, चित्रकला वास्तुकला में भी प्रवीण थे, अतः मेवाड की संस्कृति प्राचीन एवं विकसित थी इसी प्रकार बड़ली के सर्वेक्षण में प्राप्त 166 सिक्के भी जनपदीय थे तथा बड़ली ग्राम ( अजमेर के पास) से प्राप्त शिलालेख भगवान महावीर के निर्वाण के 84 वर्ष बाद का है। दोनों प्रदेश के मध्य होने के कारण इस प्रदेश मध्यबा कहा जाता था जो बाद में मेवाड़ कहा जाने लगा। इससे यह स्पष्ट है कि नगरी ई. पू. से चौथी शताब्दी के पूर्व में विद्यमान थी ।
मेवाड़ के जैन तीर्थ भाग 2
पुष्यमित्र व वसुमित्र शुभ ने कालीसिंध के तट पर यूनानियों पर आक्रमण कर पराजित कर एक महायज्ञ का आयोजन किया, जिसको अश्वमेघ यज्ञ कहा गया है। पंतजलि के अनुसार इसका सम्बन्ध यूनान से बतलाया है। इसी प्रकार नगरी से प्राप्त शिलालेख जो 150-200 ई. पूर्व का है व कई भागों में खण्डित है तथा घोसुण्डी लिपि का है। इस पर संस्कृत, मेवाड़ी ब्राह्मीलिपि अंकित हैं तथा अश्वमेघ का भी वर्णन है । (उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है)
वि. सं. 282 का नांदशा ग्राम से प्राप्त शिलालेख में भी षष्टिरात्र महायज्ञ करने का उल्लेख है व घोसुण्डी ग्राम से प्राप्त शिलालेख में भी सर्वनाम राजा के द्वारा अश्वमेघ यज्ञ कराने का उल्लेख है । अन्त में समुद्रगुप्त राजा रहे जिन्हें पराजित कर अपना राज्य बना लिया फिर भी मझमिका का छठीं शताब्दी तक अस्तित्व बना रहा।
चित्तौड़ के पास भगवानपुरा ग्राम से राख के रंग की तस्तरी प्राप्त हुई जो हस्तिनापुर के द्वितीय काल में भी प्राप्त हुई, जिसको छठीं शताब्दी ई.पू. से तीसरी शताब्दी ई.पू. की मानी गई है। (आर्कियोलोजिकल रिव्यू 1957-58 के पृष्ठ 43-46 ) मध्यमिका (मझमिका) का उल्लेख महाभारत में सभापर्व में नकुल की दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में आया है इसके अतिरिक्त श्री रामवल्लभ सोमाणी ने बनास के तट पर (मेवाड क्षेत्र में ) श्रुतायुध नामक राजा द्वारा राज्य करते थे। ऐसा मध्यमिका में प्रसंग आया है। विक्रमादित्य के पूर्व 6 - 7वीं शताब्दी में रचित पाणिनीकृत अष्टाध्यायी (व्याकरण) में भी इसका उल्लेख आया है।
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