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________________ मेवाड़ के जैन तीर्थ भाग 2 कह दी। संयोगवंश उस समय सीमंधर नाम का ब्राह्मण उधर से निकला । वह मिठाई बेचने का कार्य करता था और वह पालीतांणा का रहने वाला था, लखी ने अपनी पत्नी को उस ब्राह्मण को सुपुर्द कर दिया और वह सीमंधर के घर रहने लगी। वास्तव में साहू का भाग्य काम आया और सीमंधर के घर में लक्ष्मी प्रवेश करने लगी। सीमंधर मकान को लीपने के लिए पीली मिट्टी लाया। साहू के हाथ लगाने पर वह सोने में परिवर्तित हो गई। सीमंधर के पास इतना धन हो गया कि उसको वह कैसे और कहाँ खर्च करे। वह धन को लेकर महाराणा के पास धन को भेंट करने गया। महाराणा ने उसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद वह सण्डेरगच्छ के शांतिसरि जी के शिष्य श्री यशोभद्रसरिजी के पास गया और उनको धन अर्पण किया, आचार्यश्री ने उसे मंदिर निमाण करने का उपदेश दिया। सीमन्धर ने ऐसा ही किया और पांच मंदिर, सातबीस मंदिर चित्तौड़, करेडा, खाखड़, बागोल, पलाणा में बनाये और निर्माण कार्य करते समय सोमपुरा (कारीगर) ने नींव में चार हजार मन तेल डालने को कहा तो लखी ने हजारों मन तेल नींव में डाल दिया और 15 वर्षों में मंदिर के निर्माण कार्य पुरा हो जाने पर पांचों मंदिरों की प्रतिष्ठा आचार्य श्री यशोभद्रसुरिजी ने संवत् 1029 वैशाखसुद प्रतिपदा को एक ही दिन में प्रतिष्ठा कराई और सीमंधर को जैन कुल में सम्मिलित किया गया। नींव में तेल डालने से तिलसरा गौत्र रखी गई और तिलसरा ही तलेसरा कहलाने लगे। इसका प्रमाण यह है - बावन जिनालय के पाट पर लेख था, जो इस प्रकार है - संवत् 1039 वर्षे श्री संडेरकगच्छ, श्री यशोभद्रसूरि श्री पार्श्वनाथ बिंब प्रतिष्ठितं - -- पूर्व चंदेण कारितं मांडवगढ के महामंत्री पेथडकुमार के पुत्र झाझडकुमार ने संवत् 1321 में इस तीर्थस्थल का जीर्णोद्धार करवाया। यह मंदिर सात मंजिला होना बताया गया है लेकिन वर्तमान में नहीं है। इसका शिखर विशाल व कलाकृतियों से बना हुआ है। मंदिर में दो शिखर है। सभामण्डप भी दर्शनीय है, ऐसी कलाकृति अन्य मंदिरों में कम ही दिखाई देती है। उक्त प्रकरण से यह आशय है कि मंदिर प्राचीन है लेकिन प्रमाणिकता का आधार, कोई शिलालेख नहीं मिलता है और प्रतिमाओं व स्तम्भों पर उत्कीर्ण लेख दसवीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है Jain Education International For e 136 Private Use Only www.jainelibrary org
SR No.004220
Book TitleMewar ke Jain Tirth Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Bolya
PublisherAthwa Lines Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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