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मेवाड़ के जैन तीर्थ भाग 2
संपादकीय
नगराणां भूषणार्थ देवानां निलयाय च । लोकानां धर्म हेत्व क्रीडार्थ सुरयोषितम् ।।
देव मंदिर के प्रसादों की रचना नगर की शोभा, देवों का निवास, लोगों की धर्म वृद्धि और देवांगनाओं की क्रीड़ा के लिए होती है।
प्रसाद प्राणी मात्र का आश्रय स्थान, वीर पुरूषों की कीर्ति तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति में कारण भूत तथा सर्व इच्छाओं को देने वाला होता है।
गीत नृत्य और वाद्यों से सदैव ही गुंजायमान, दर्शनीय और मनोहर. नाना प्रकार की ध्वजाओं-पतकाओं तथा तोरणों से अलंकृत प्रासादों (मन्दिर) नगर, राजा तथा प्रजा आदि के सर्वकाल सुख शान्ति देने वाले, सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति करने वाले तथा नित्य कल्याण करने वाले होते
सुन्दर देवालय, किसी भी देश के गौरव व शोभा को बढ़ाने वाले होते हैं, ये नगर के अलंकार है। इन सुंदर देवालयों की प्राचीनता अक्षण रूप से बनाए रखना आवश्यक है। इन्हीं प्राचीनता के आधार पर जैन धर्म का अस्तित्व है, आज हमारे तीर्थकरों को संदेहात्मक कहा जाता है इसलिए भी आवश्यक है कि , शिलालेखों को सुरक्षित रखा जावे। जिनालय
__मेरी अभिलाषा है......देवाधिदेव..............अरिहन्त देव आप तो चिंतामणी तुल्य है, चिन्त्य एवं अचिन्त्य सर्व पदार्थो को प्रदान करने के लिए आप समर्थ है...
है..प्रभु...मुझ पर अनुग्रह करें... आपकी वंदना से सुविशुद्ध, सम्यग्बोधि जीवन तथा मृत्यु में समाधिशुद्ध परिणित की आत्मानुभुति तथा परम पद मुझे प्राप्त हो ।
यही मेरी अभिलाषा..
(मोहनलाल बोल्या)
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