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________________ मोक्षको निजशुद्धता, ते पामे ते पंथ; समजाव्यो संक्ष ेपमां, सकल मार्ग निर्ग्रथ. अहो ! अहो ! श्री सद्गुरु, करुणासिंधु अपार; आ पामर पर प्रभु कर्यो, अहो ! अहो ! उपकार १२४ शुं प्रभु चरण कने धरु, आत्माथी सौ हीन; ते तो प्रभु आपियो, वर्तु चरणाधीन. आ देहादि आजथी, वर्तो प्रभु आधीन; दास, दास, हुं दास घुं, तेह प्रभुनो दीन. षट् स्थानक समजावीने, भिन्न बताव्यो आप; म्यानथकी तरवारवत्, अ उपकार अमाप. निश्चयवाणी सांभळी, साधन तजवां, नोय; निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवां सोय. Jain Education International 36 १२३ उपसंहार १२८ दर्शन षटे समाय छे, आ षट् स्थानकमांही; विचारतां विस्तारथी, संशय रहे न कांई. आत्म भ्रान्ति सम रोग नहीं, सद्गुरू वैद्य सुजाण; गुरु आज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार ध्यान. १२९ जो ईच्छा परमार्थ तो, करो सत्य पुरुषार्थ; भवस्थिति आदि नाम लई, छेदो नहि आत्मार्थ १३० For Personal & Private Use Only १२५ १२६ १२७ १३१ www.jainelibrary.org
SR No.004217
Book TitleBhakti Kartavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapkumar J Toliiya
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1983
Total Pages128
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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