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________________ सहजानन्द-वाणी: भक्ति-शक्ति "भक्ति में अनंत शक्ति है ......... ।” "आपके हृदयमंदिर में यदि परमकृपालु-देव की प्रशमरसनिमग्न अमृतमयी मुद्रा प्रकट हुई हो तो उसे वहीं स्थिर करनी चाहिए । अपने ही चैतन्य का उसी प्रकार से परिणमन-यही साकार उपासना श्रेणी का साध्यबिंदु है और वही सत्यसुधा कहा जाता है । हृदय-मंदिर से सहस्त्रदल-कमल में उसकी प्रतिष्ठा करके उसमें ही लक्ष्य-वेधी धनुष की भांति चित्तवृत्तिप्रवाह का अनुसंधान टिकाये रखना वही पराभक्ति अथवा प्रेमलक्षणाभक्ति कही जाती है । उपर्युक्त अनुसंधान को ही शरण कहते हैं । शर - तीर । शरणबल से स्मरणबल टिकता है। कार्यकारण के न्याय से शरण और स्मरण की अखंडता सिद्ध होने पर, आत्मप्रदेश में सर्वांग चैतन्य-चांदनी फैलकर सर्वांग आत्मदर्शन और देहदर्शन भिन्न-भिन्न रूप में दृष्टिगत होता है और आत्मा में परमात्मा की तस्वीर विलीन हो जाती है।” Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004217
Book TitleBhakti Kartavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapkumar J Toliiya
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1983
Total Pages128
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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