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________________ २४ पृथक् कोई आचार्य की उपलब्धि ही जैन साहित्य में नहीं होती है। और इनके सम्बन्ध में खरतरगच्छीय गुरुपरम्पराओं के अतिरिक्त उल्लेख भी नहीं मिलता । अतः यह सिद्ध है कि पिण्डविशुद्धिकार जिनवल्लभगणि पृथक् नहीं है, किन्तु अभयदेवाचार्य के शिष्य खरतरगच्छीय ही है। और इनके सिद्धान्त सर्वमान्य भी हैं। ___सङ्घपट्टक-प्रस्तुत काव्य की रचना 'गणिजी' के जीवन की चरमोत्कर्ष कहानी है। उपसम्पदा के पश्चात् चैत्यवास का सक्रिय विरोध कर आमूलोच्छेदन करने का प्रयत्न किया और इस प्रयत्न में इनको. पूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई। इनके पश्चात् युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरि और आचार्यप्रवर श्रीजिनपतिसूरि ने तो अपने सबल प्रयत्नों से इस परंपरा का उच्छेदन ही कर डाला था । गणिजीने इस लघु काव्य में तत्कालीन चैत्यवासी आचार्यो की शिथिलता, उनकी उन्मार्गप्ररूपणा और सुविहितपथ-प्रकाशक गुणिजनों के प्रति द्वेष इत्यादि का सुन्दर विश्लेषण किया है। ___ इस काव्य में ४० पद्य हैं। उनमें प्रथम श्लोक में श्रीपार्श्वनाथ को नमस्कार कर 'पण्डितों को कुपथ त्याग करने का उपदेश दिया है। दूसरे पद्य में श्रोताओं की योग्यता को दिखलाया है। ३-४ पद्य में उपमाओं द्वारा चैत्यवासियों को जिनोक्ति प्रत्यर्थी सिद्ध करते हुए पूर्व पद्य में १ औद्दोशिक भोजन, २ जिनगृह में निवास, ३ वसतिवास के प्रति मात्सर्य, ४ द्रव्यसंग्रह, ५ श्रावक भक्तों के प्रति ममत्व, ६ चैत्य स्वीकार (चिन्ता), ७ गद्दी आदि का आसन, ८ सावध आचरणा, ९ सिद्धान्तमार्ग की अवज्ञा और १० गुणियों के प्रति द्वेष का विवेचन । इस प्रकार विवेचनीय दश द्वारों का उल्लेख किया है। ६ से ३३ पद्य पर्यन्त दश द्वारों का विशद वर्णन किया है। ३४-३५ में ग्रन्थरचना का कारण कह कर, ३६-३७ में सुविहित साधुवृन्द के पूताचार की प्रशंसा की है। ३८वें ३९-४०वें पद्य में भस्मकम्लेच्छ सैन्य की उपमा प्रदान कर कदर्थना करते हुए उपसंहार किया है। ___ इस लघुकाय चाचिक ग्रन्थ को भी गणिजीने निदर्शना, अप्रस्तुत प्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, तुल्ययोगिता, रूपक, उपमा, अनुप्रासादि अलंकारों से सज्जित कर अपनी बहुमुखी प्रतिभा का सुन्दर परिचय दिया है। साथ ही इस में स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित, मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, द्विपदी, पृथ्वी, मालिनी, वसन्ततिलका, आदि ८ पृथक् २ छन्दों में ग्रथित कर छन्दशास्त्र पर एकाधिपत्य भी सिद्ध किया है। समग्र काव्य ओजःगुण से परिपूर्ण होने के कारण पाठक के हृदय में भी आनन्द ही उत्पन्न कर देता है। सङ्घपटट्क की टीकाएँ-इस लघु काव्यग्रन्थ पर अनेक मनीषियों ने भाष्य, वृत्ति, अवचूरि, बालावबोध आदि रच कर इसकी महत्ता, उपयोगिता स्थापित की है। वर्तमान में इस पर वृत्ति आदि ८ आठ वृत्तियों ही प्राप्त होती है। जिसकी तालिका निम्नलिखित है। १. बृहद्वृत्ति जिनपतिसूरि २. लघुवृत्ति श्रीलक्ष्मीसेन ३. लघुवृत्ति हर्षराज गणि ४. अवचूरि उ. साधुकीर्ति ५.पञ्जिका देवराज ६. षष्ठवृत्ति विवेकरत्नसूरि ७. षष्टवृत्ति (?)* ८. बालावबोध उ. लक्ष्मीवल्लभ । ★नं. ५-६-७, जिनरत्नकोषानुसार. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004215
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2012
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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