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________________ (पूर्वावृत्ति का) उपोद्घात जुगपवरागमपीऊस-पाणपीणियमणाकया भव्वा । जेण जिणवाल्हेणं, गुरुणा तं सव्वहा वंदे ॥ जिस समय चैत्यवासी आचार्यगण ज्ञानवाद को प्रधानता देकर भगवत्प्ररूपित सैद्धान्तिक आचरणों की अवहेलना कर रहे थे, भगवन्नाम से ही चैत्यों में निवास कर रहे थे, मठपतियों की तरह चैत्यों के सर्वाधिकारी बन कर वैभव साम्राज्य में आनन्द-उत्सव मना रहे थे, उस समय में इस चैत्यवास की दुर्व्यवस्था से व्यथित होकर सर्वप्रथम आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने इस दुराचार का उग्र विरोध किया था, पर इसका कोई ठोस परिणाम हुआ हो, कहा नहीं जा सकता। तदनन्तर प्रमुखरूप से उग्र विरोध करनेवाले आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि हुए, जिन्हों ने चैत्यवासियों की प्रमुख नगरी अणहिलपुर पत्तन में जाकर, महाराजा श्री दुर्लभराज के समक्ष चैत्यवासी आचार्यो के सन्मुख ही सैद्धान्तिक आचरणाओं की शुद्ध प्ररूपणा कर सुविहित पक्ष की स्थापना की थी। सुविहित पक्षीय आचरणाओं के प्ररूपक और चैत्यवासी उन्मार्गगामिता के निर्देशक रूप में ही इस काव्यरचना हुई थी। काव्यप्रकार-इस काव्य के प्रणेता 'श्रीजिनवल्लभगणि' है। यह इस काव्य ३८वीं कारिका से स्पष्ट विभाजिष्णुमगर्वस्मरमनासादं श्रुतोल्लङ्घन, . सज्ज्ञानामणि जिनं वरवपुः श्रीचन्द्रिकाभेश्वरम् । वन्दे वर्ण्यमनेकधासुरनरैः शक्रेण२ चैनच्छिदं, दम्भारिं विदुषां सदा सुवचसाऽनेकान्तरङ्गप्रदम् ॥ ॥३८॥ "जिनवल्लभेन गणिनेदं चक्रे" ये जिनवल्लभ गणि कौन थे? कहाँ के थे ? किनके शिष्य थे? इत्यादि विषयों का निर्णय बाह्य एवं अन्तरङ्ग प्रमाणों से किया जा सकता है। - श्रीजिनपतिसूरि शिष्य श्रीजिनपालोपाध्यायप्रणीत खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में और श्रीसुमतिगणिरचित गणधरसार्द्धशतक की बहद्वत्ति में इस प्रकार उल्लेख मिलता है। ज़िनवल्लभ आसिका दुर्गनिवासी कूर्चपुरीय श्रीजिनेश्वराचार्य के शिष्य थे। सिद्धान्ताध्ययन के लिये पत्तन-स्थित आचार्यप्रवर श्रीअभयदेवसूरि के पास गये थे। आगमाध्ययनोपरान्त सुविहित आचरणाओं से प्रभावित होकर, गुरु जिनेश्वराचार्य की आज्ञा प्राप्त कर, चैत्यवास का त्याग कर उन्होंने अभयदेवाचार्य के पास उपसम्पदा ग्रहण की । इन्हीं को अभयदेवाचार्य के विनेय प्रसन्नचन्द्राचार्य के शिष्य श्री देवमनाचार्य ने सं. ११६७ चित्रकूट में अभयदेवाचार्य के पट्ट पर अभिषिक्त कर जिनवल्लभसूरि नाम उद्घोषित किया, और सं. ११६७ के ही कार्तिक कृष्णा द्वादशी के दिन उनका स्वर्गवास हुआ। इन तीन्हीं प्रसंगों की पुष्टि अन्य खरतरगच्छीय पट्टावलियों से भी होती हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004215
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2012
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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