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यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषाओं (उत्तर - भारतीय भाषाओं) की जननी है, उनके विकास की एक अवस्था है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- 'साहित्यिक परम्परा की दृष्टि से विचार किया जाए तो अपभ्रंश के सभी काव्यरूपों की परम्परा हिन्दी में ही सुरक्षित है।'' द्विवेदी जी ने तो अपभ्रंश को हिन्दी की 'प्राणधारा' कहां है। हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तर- भारतीय भाषाओं के इतिहास को जानने के लिये अपभ्रंश का अध्ययन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। अतः राष्ट्रभाषा हिन्दी सहित आधुनिक भारतीय. भाषाओं के सन्दर्भ में यह कहना कि अपभ्रंश का अध्ययन राष्ट्रीय चेतना और एकता का पोषक है उचित प्रतीत होता है।
अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन-अध्यापन एवं प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित 'जैनविद्या संस्थान' के अन्तर्गत अपभ्रंश साहित्य अकादमी की स्थापना सन् 1988 में की गई। अकादमी का प्रयास है- अपभ्रंश के अध्ययन-अध्यापन को सशक्त करके उसके सही रूप को सामने रखना जिससे प्राचीन साहित्यिक- निधि के साथ-साथ आधुनिक आर्यभाषाओं के स्वभाव और उनकी सम्भावनाएँ भी स्पष्ट हो सकें।
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वर्तमान में अपभ्रंश भाषा के अध्ययन के लिए पत्राचार के माध्यम से अपभ्रंश सर्टिफिकेट व अपभ्रंश डिप्लामो पाठ्यक्रम संचालित हैं, ये दोनों पाठ्यक्रम राजस्थान विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त हैं।
किसी भी भाषा को सीखने, जानने, समझने के लिए उसके रचनात्मक स्वरूप / संरचना को जानना आवश्यक है। अपभ्रंश के अध्ययन के लिये भी
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