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________________ ༧ ླ जाइ पुत्तवहु पुच्छइ त मुणि पुरओ किं एव वुत्त महु ससुरु जाउ वि न ताए उत्त हे ससुर धम्महीण माणवभवु सद्धम्मकिच्च सहलु भवु न कउ सो मणुभव निप्फल चिय तओ तउ जीव 142 Jain Education International (गेह) 2/1 (जा) संकृ [(पुत्त) - (वहू) 2/1] (पुच्छ) व 3 / 1 सक (तुम्ह) 3 / 1 स (मुणि) 6/1 अव्यय अव्यय अव्यय (वृत्त) भूकृ 1/1 अनि (अम्ह) 6/1 स (ससुर) 1/1 (जाअ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय अव्यय (ता) 3 / 1 स (उत्त) भूकृ 1/1 अनि (ससुर) 8/1 (धम्महीण ) 6 / 1 वि (मणुस ) 6/1 [( माणव ) - (भव) 1 / 1] (पत्त ) भूकृ 1 / 1 अनि अव्यय ( अपत्त ) भूक 1 / 1 अनि अव्यय अव्यय [ ( सद्धम्म ) - ( किच्च ) 3/2] ( सहल ) 1 / 1वि (भव) 1 / 1 अव्यय (कअ) भूकृ 1 / 1 अनि (त) 1 / 1 स [(मणुस ) - (भव) 1/1] (निप्फल ) 1 / 1 वि अव्यय अव्यय (तुम्ह) 6/1 स ( जीवण) 1 / 1 घर जाकर पुत्रवधु को पूछता है तुम्हारे द्वारा मुणि के समक्ष क्यों इस प्रकार कहा गया मेरा ससुर उत्पन्न हुआ नहीं उसके द्वारा कहा गया हे ससुर ! धर्महीन मनुष्य का मनुष्य भव प्राप्त किया हुआ भी प्राप्त नहीं किया हुआ (अप्राप्त) ही (है) क्योंकि सत् धर्म की क्रिया के द्वारा सफल भव नहीं किया गया वह मनुष्य जन्म निरर्थक ही (है) उस कारण से तुम्हारा जीवन For Personal & Private Use Only अपभ्रंश अभ्यास उत्तर पुस्तक www.jainelibrary.org
SR No.004213
Book TitleApbhramsa Abhyas Uttar Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2011
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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