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मोक्षपाहुड का कथन है कि चेतन और अचेतन के भेद का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है।144 इनका भेद जैनदर्शन के तात्त्विक चिन्तन के अनुरूप है। अकेला न तो ज्ञान और न ही तप लाभदायक है लेकिन दोनों के संयुक्त होने पर ही मोक्ष प्राप्त होता है145 और अधिक स्पष्ट करें तो शील और ज्ञान एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं बल्कि सम्यग्श्रद्धा, ज्ञान, तप, आत्मसंयम, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष और प्राणियों के लिए करुणा- ये सभी शील के परिवार हैं।146 केवल उस योगी के द्वारा ही आत्मा का अनुभव किया जा सकता है जो पशु-प्रवृत्तियों 47 से अलग . है और जिसने सभी दोषों को छोड़ दिया है। 48 वह चारित्ररूपी तलवार से पापरूपी खंभों को काट देता है।149 व्याकरण, छंद और न्याय के ज्ञान से शील अधिक महत्त्व का माना गया है।150 पर से संबंधित मानसिक अवस्था को त्यागे बिना शास्त्रों का ज्ञान भी उपयोगी नहीं है।151 मूलाचार का कथन है कि शास्त्र का ज्ञान अनासक्ति के बिना व्यर्थ होता है जैसे अंधे मनुष्य के हाथ में दीपक होता है।152 योगसार के अनुसार अनासक्ति के बिना बौद्धिक अध्ययन, पुस्तकों को रखना और धार्मिक स्थान में रहना धर्म नहीं कहा जा सकता है।153 जो व्यक्ति राग
144. मोक्षपाहुड, 41 145. मोक्षपाहुड, 59 146. शीलपाहुड, 2, 19 147. मोक्षपाहड, 66 148. भावपाहुड, 85 149. भावपाहुड, 159 150. शीलपाहुड, 16 151. योगसार, 96 152. मूलाचार, 894, 933 153. योगसार, 47
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