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शरीर धारण करता है। जाग्रत पुरुष विचारता है कि आत्मा अजन्मा है, शाश्वत है, नित्य है, सर्वव्यापक है और शरीर के काटने पर भी काटा नहीं जाता है। न यह जलाया जा सकता है और न ही सुखाया जा सकता
है।
समाधिशतक का कथन है कि अन्तरात्मा ने अपने आपको शरीर से अलग कर लिया है और यह शारीरिक शक्ति को, दुर्बलता को
और शरीर के नाश को आत्मा से संबंधित नहीं मानता है। समयसार के अनुसार सुप्त आत्मा विचारता है कि मैं दूसरे प्राणियों को मारता हूँ या मैं दूसरे प्राणियों द्वारा मारा जाता हूँ। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा सर्वव्यापक नहीं है।
द्वितीय, जाग्रत आत्मा संकल्पवान होता है किन्तु सुप्त आत्मा की बुद्धि अनेक शाखाओं वाली होती है। दूसरे शब्दों में जाग्रत आत्मा की बुद्धि सात्त्विक होती है जब कि सुप्त आत्मा की बुद्धि राजसिक और तामसिक होती है।
पूज्यपाद के अनुसार वह मनुष्यं जिसकी बुद्धि आत्मा की तरफ झुकने के कारण स्थिर हो गई है 81 आत्मा के द्वारा ही संतोष प्राप्त करता है 2 और आत्मा को ही निवास-स्थान समझता है। वह शरीर के प्रति 75. भगवद्गीता, 2/13, 22 76. भगवद्गीता, 2/19, 20, 25 77. समाधिशतक, 63, 64, 77 78. समयसार, 247 79. भगवद्गीता, 2/41 80. भगवद्गीता, 18/30, 31, 32 81. समाधिशतक, 49 82. समाधिशतक, 60 83. समाधिशतक, 73
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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