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और भगवद्गीता में अनेकता अविद्या है किन्तु जैनदर्शन के अनुसार जीव और पुद्गल में तादात्म्य अविद्या है।
जाग्रत और सुप्त आत्माएँ
अब हम संक्षेप में जाग्रत और सुप्त आत्माओं के बारे में विचार करेंगे। कठोपनिषद् के अनुसार सुप्त आत्मा अपनी इन्द्रियों से बाहर देखता है किन्तु जाग्रत आत्मा जो शाश्वतता चाहता है वह इन्द्रियों को अन्दर की ओर मोड़ता है और अपने अन्दर आत्मा को देखता है। " सुप्त आत्मा इन्द्रिय-सुखों में डूबता हुआ मृत्यु के जाल में फँस जाता है किन्तु जाग्रत आत्मा जिन्होंने अमरपंद को जान लिया है वह क्षणिक सुखों के पीछे नहीं भागता है । 4
समाधिशतक के अनुसार बहिरात्मा (सुप्त ) इन्द्रियों के द्वारा बाह्य पदार्थों में संलग्न रहता है और शरीर और आत्मा को गड्डमड्ड कर देता है किन्तु अन्तरात्मा (जाग्रत) इन्द्रियों की इस प्रवृत्ति को स्वीकार नहीं करता और आत्मा को देखता है।'' इष्टोपदेश का कथन है कि जाग्रत मनुष्य इन्द्रियों के सुखों के लिए प्रयास नहीं करता है किन्तु सुप्त मनुष्य उनसे सुख चाहता है जो उसको निराशा में ले जाता है। " मुण्डकोपनिषद् के अनुसार सुप्त आत्माएँ पुण्य कार्यों को बहु महत्त्वपूर्ण मानती हैं और उच्चतम आदर्श का उनको कोई भान नहीं होता है, अत: इस संसार में बार-बार जन्म लेती हैं। 7 उस मनुष्य की
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कठोपनिषद्, 2/1/1
कठोपनिषद्, 2/1/2 समाधिशतक, 7, 16
इष्टोपदेश, 17 समाधिशतक, 55
मुण्डकोपनिषद्, 1/2/10
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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