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________________ सामान्य सम्पादकीय आचार जैनधर्म का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। इसके दो प्रयोजन हैं- प्रथम, यह आध्यात्मिक शुद्धि उत्पन्न करता है और द्वितीय, यह व्यक्ति को योग्य सामाजिक प्राणी बनाता है; जिससे वह उत्तरदायित्वपूर्ण एवं सद्व्यवहारवाला पड़ौसी बन सके। (1) पहला प्रयोजन कर्म के जैन सिद्धान्त से उत्पन्न होता है; जो स्वचालितरूप से क्रियाशील नियम है; जिससे कर्म-विधान के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को उसके स्वयं के विचारों, शब्दों और क्रियाओं का शुभ या अशुभ फल अवश्यं मिलता है। कर्म के इस नियम में ईश्वरीय हस्तक्षेप को कोई स्थान नहीं है, यहाँ ईश्वर को सृष्टि का कर्ता स्वीकार नहीं किया गया है। वह न तो सांसारिक प्राणियों को प्रसाद प्रदान कर सकता है और न ही दण्ड दे सकता है। निःसन्देह यह एक साहसिक दृष्टिकोण है जो जैनधर्म में बुनियादी तौर पर प्रतिपादित किया गया है जिसके कारण व्यक्ति निश्चय ही अपने भाग्य का स्वयं निर्माता होता है। कर्म एक सूक्ष्म ‘पुद्गल' या 'ऊर्जा' का एक प्रकार माना गया है जो विचारों, शब्दों और क्रियाओं के फलस्वरूप आत्मा को प्रभावित करता है। वास्तव में प्रत्येक आत्मा अनादिकाल से कर्मों के प्रभाव में है। प्रत्येक व्यक्ति अतीत के कर्मों के फलों का अनुभव करता है और नये कर्म बाँधता है। इस तरह से क्रिया और उसके फल का चक्र चलता रहता है। केवल अनुशासनात्मक जीवन जीने से व्यक्ति कर्मों से छुटकारा पा सकता है। इस तरह से जब आत्मा पूर्णतया कर्मों से मुक्त हो जाता है तो यही आध्यात्मिक मुक्ति कही जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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