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. आध्यात्मिक विकास के चौदह सोपान जो पारिभाषिक रूप से गुणस्थान जाने जाते हैं उन्हें निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत सम्मिलित कर सकते हैं अर्थात् (1) जाग्रति से पूर्व आत्मा का अंधकारकाल, (2) आत्मजाग्रति, (3) शुद्धीकरण, (4) ज्योतिपूर्ण अवस्था, (5) ज्योति के पश्चात् अंधकार काल और (6) लोकातीत जीवन। इन अवस्थाओं से परे एक और अवस्था है जो सिद्ध अवस्था जानी जाती है।
. (1) आत्मा के इतिहास में घोर अंधकार का काल वह है जब आत्मा मिथ्यात्व से ग्रसित होता है। प्रथम अवस्था अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान में आत्मा की दशा पूर्ण रूप से चन्द्रग्रहण के समान होती है अथवा बादलों से घिरे हुए आकाश की तरह होती है। यह आध्यात्मिक निद्रा की स्थिति है जिसकी विशेषता है कि आत्मा स्वयं ही इस निद्रा से अवगत नहीं है। मिथ्यादृष्टि व्यक्ति गहन रूप से बौद्धिक और दृढ़ रूप से नैतिक हो सकता है किन्तु उसमें रहस्यवाद की योग्यता का अभाव रहेगा। इस प्रकार आध्यात्मिक रूपान्तरण का नैतिक रूपान्तरण और बौद्धिक उपलब्धियों से भेद किया जाना चाहिए।
(2) जिस आत्मा में आध्यात्मिक रूपान्तरण की प्राप्ति हुई है उसने वर्तमान जन्म में या पूर्व जन्म में उनसे उपदेश सुना होगा जिन्होंने अपने जीवन में दिव्यत्व अनुभव कर लिया है या जो दिव्य अनुभव के मार्ग पर है। अरिहंत सर्वोच्च गुरु हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु दिव्य अनुभूति के मार्ग पर हैं। केवल आचार्य को ही व्यक्तियों को रहस्यात्मक जीवन में दीक्षा देने का अधिकार है इसलिए वे गुरु कहलाते हैं। अब आत्मा चौथे गुणस्थान में है। दूसरी और तीसरी अवस्थाएँ आध्यात्मिक रूपान्तरण से गिरने की अवस्थाएँ हैं।
(3) अब आत्मा जाग्रत-आत्मा में रूपान्तरित हो चुकी है। साधक अब स्वयं को स्वाध्याय में लगाता है और आत्म-संयम का
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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