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________________ केवलज्ञान प्रकाशित हो जाता है।17 (3) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति- जब आयु में अर्तमुहूर्त काल शेष रहता है तब सब प्रकार के वचनयोग और मनोयोग त्यागकर सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन लेकर ध्यान किया जाता है वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान कहलाता है।218 दूसरे शब्दों में, मन-वचन के योग अवरुद्ध हो जाते हैं और केवल सूक्ष्म काययोग रहता है।219 (4) व्युपरतक्रियानिवर्ति- जब सब प्रकार की क्रियाएँ रुक जाती हैं और निष्क्रिय अवस्था उत्पन्न होती है, तो इस ध्यान को व्युपरतक्रियानिवर्ति शुक्लध्यान कहते हैं। पूज्यपाद220 इसको समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति ध्यान कहते है। इसमें क्रिया का उच्छेद हो जाता है, फलस्वरूप आत्मप्रदेश का परिस्पन्दन भी समाप्त हो जाता है। इसमें सूक्ष्म काययोग भी समाप्त हो जाता है और आत्मा मन-वचन और काय की क्रियाओं से मुक्त हो जाता है और वह उचित समय में विदेहमुक्ति प्राप्त कर लेता है। यहाँ सब प्रकार का आत्मपरिस्पंदन समाप्त हो जाता है और आत्मा सर्वथा निष्प्रकंप हो जाता है।221 (व्युपरत का अर्थ है- जो रुक गया हो और निवर्ति का अर्थ है- निष्क्रिय अवस्था)। मुनि के आध्यात्मिक मरण के प्रकार पाँच प्रकार के मरण में से मुनि पंडित-मरण के योग्य होता है। जिसके तीन भेद हैं- भक्तप्रतिज्ञा-मरण, इंगिनी-मरण और प्रायोपगमनमरण।222 केवल वह मुनि जिसके असाध्य रोग है, असहनीय वृद्धावस्था 217. सर्वार्थसिद्धि, 9/44 218. सर्वार्थसिद्धि, 9/44 219. सर्वार्थसिद्धि, 9/44 220. सर्वार्थसिद्धि, 9/44 221. सर्वार्थसिद्धि, 9/44 222. भगवती आराधना, 29 Ethical Doctrines in Jainism Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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