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अनुशासित मुनि को असंयमित मुनियों का आदर नहीं करना चाहिए और गृहस्थ को व राजा को प्रणाम नहीं करना चाहिए।122 पारम्परिक स्तुति और वंदना के स्थान पर कुन्दकुन्द परमभक्ति का उल्लेख करते हैं जो व्यावहारिक दृष्टिकोण से मुक्तात्माओं के गुणों की भक्ति है।123 दो प्रकार की परमभक्ति बतायी गयी है अर्थात् निर्वृत्तिभक्ति और योगभक्ति। पूर्ववर्ती का अर्थ है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की भक्ति। परवर्ती का अर्थ है तत्त्वों का चिन्तन जो राग आदि को त्याग कर आत्मलीनता को उत्पन्न करता है।124 (iv) प्रतिक्रमण
यह संभव है कि मुनि सूक्ष्म कषायों के दबाव में सम्यक्चारित्र की गहराइयों से दूर हो जाए; अत: मुनि को प्रतिदिन आत्म-आलोचना (निन्दा) से उनको शुद्ध करना चाहिए, गुरु के समक्ष अपने दोषों की निन्दा (गर्हा) और अन्त में गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट कर देना चाहिए (आलोचना)।125 यह भाव प्रतिक्रमण है और प्रतिक्रमण सूत्र को पढ़ना द्रव्य प्रतिक्रमण है।126 जो मुनि भाव प्रतिक्रमण के साथ द्रव्य प्रतिक्रमण करता है वह बहुतायत से कर्मों को समाप्त कर देता है। यह
122. मूलाचार, 592 123. नियमसार, 135 124. नियमसार, 134,137, 139 125. अनगार धर्मामृत, 8/62
मूलाचार, 620, 622, 26 126. मूलाचार, 623
अनगार धर्मामृत, 8/62
नियमसार, 94 127. मूलाचार, 625
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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