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रखता है।4 परिग्रह की विद्यमानता होने पर कर्मों का बंधन अपरिहार्य है। इसलिए मुनि सब प्रकार के परिग्रह को त्याग देते हैं। दूसरे शब्दों में यह बात अचिन्त्य है कि परिग्रह का संसर्ग होते हुए व्यक्ति मोह का, असंयम का, सांसारिक व्यस्तता का शिकार न हो। जो व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं में तल्लीन होगा वह शुद्धात्मा की अनुभूति करने में असमर्थ रहेगा।
परिग्रह के अन्तर्गत शरीर के प्रति थोड़ा-सा भी राग सम्मिलित है। वे व्यक्ति जो मोक्ष-प्राप्ति के इच्छुक हैं उनको शरीर के प्रति भी अनासक्ति का उपदेश दिया गया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि दूसरे प्रकार का तो कोई भी परिग्रह प्रशंसित नहीं किया जा सकता है। यह तो आदर्श स्थिति है। जो साधु इतनी ऊँचाई पर नहीं जा सकता वह उस परिग्रह को स्वीकार कर सकता है जो दूसरे के द्वारा न चाहा गया हो और मानसिक अशुद्धता उत्पन्न न करता हो।
___ जब आध्यात्मिक अनुभूति के शिखर पर चढ़ा जाता है तो किसी भी प्रकार का परिग्रह निरर्थक होता है। उससे नीचे वह मुनि ऐसा परिग्रह रख सकता है जो शुभोपयोग के अनुरूप हो या शुभभावों को बढ़ानेवाला हो। इस प्रकार का परिग्रह मुनि-जीवन के पालने के लिए अनिवार्य है। ऐसे परिग्रह के अन्तर्गत जन्मदत्त शरीर, गुरु के आध्यात्मिक . 64. नियमसार, 56
मूलाचार, 293 आचारांग, 2/15/5
भगवती आराधना, 1117 65. प्रवचनसार, 3/19 66. प्रवचनसार, 3/21 -67. प्रवचनसार, 3/23
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त '
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