SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं है जहाँ मरण-पक्षी अपने पंख नहीं फैला सकता हो।" मरते हुए प्राणियों को बचाने के लिए कोई भी चाल और युक्ति सफल नहीं होती है। इस प्रकार जो व्यक्ति मरण की अनिवार्यता के जरिए आध्यात्मिक जीवन के लिए प्रेरक विकसित करना चाहते हैं, वे आवश्यक रूप से ऐसा जीवन खोजते हैं जो इसकी पकड़ से सदैव परे हो। (iii) पुनर्जन्म का प्रेरक (संसार-अनुप्रेक्षा)- प्रत्येक प्राणी कषायों के कुप्रभावों से जन्म और मरण का शिकार हो जाता है। आवागमनात्मक संसारी आत्मा एक शरीर को छोड़ती है और लगातार दूसरे शरीर में प्रवेश करती जाती है। कर्म बंधन के दबाव में सांसारिक आत्मा निरन्तर जन्म-मरण का शिकार रहती है। संक्षेप में चार गतियाँ कही जाती हैं- मनुष्यगति, देवगति, नरकगति और तिर्यंचगति। जहाँ आवागमनात्मक संसारी आत्मा उत्पन्न होती है और दुःखों में फँस जाती है।' दुर्जेय दुःख नरक और तिर्यंचगति से संबंधित रहते हैं। देवगति के जीव उनकी तुलना में अधिक सुखी सोचे जा सकते हैं। लेकिन उनमें इन्द्रिय सुखों की अत्यधिक लालसा होती है जिससे मानसिक दुःख उत्पन्न होते हैं। अतः उनको केवल ऊपरी रूप से सुखी कहा जा सकता 16. ज्ञानार्णव, 2/18 17. ज्ञानार्णव, 2/18 • 18. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 33 . 19. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 32 20. . ज्ञानार्णव, 2/2 21. मूलाचार, 707 ज्ञानार्णव, 2/1, 17 22. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 34-44 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (7) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy