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________________ भक्ति के विषय हो सकते हैं, किन्तु वे मानवीय प्रार्थनाओं के विषय होते हुए भी मानवीय सुख-दुःख से बिलकुल तटस्थ रहते हैं। लेकिन जैनधर्म के अनुसार अर्हत् या सिद्ध के प्रति भक्ति की प्रेरणा इस बात से उत्पन्न होती है कि उनमें से किसी की भी भक्ति आत्मा में उच्चतम प्रकार के पुण्य का संचय करती है, जो फलस्वरूप भौतिक और आध्यात्मिक लाभ उत्पन्न करती है। अर्हत् या सिद्ध के प्रति भक्ति के द्वारा हमारे विचार और संवेग शुद्ध होते हैं जिसके परिणामस्वरूप आत्मा में पुण्य का संचय होता है। इस प्रकार का पुण्य केवल पत्थर की पूजा करने से उत्पन्न नहीं हो सकता है, इसलिए जैनधर्म में अर्हत् और सिद्ध की पूजा का महत्त्व है। इस तथ्य के कारण समन्तभद्र यह घोषणा करते हैं कि अर्हत् की आराधना आत्मा में अत्यधिक पुण्य का संचय करती है। जो उसकी भक्ति करता है वह समृद्धि को पाता है और जो उसकी निन्दा करता है वह दुःख में गिरता है। ऐसा समझने पर साधक को ईश्वर (अर्हत् और सिद्ध) के अलगाव पूर्ण व्यवहार के लिए निराशा की श्वास नहीं लेनी चाहिये। सच तो यह है कि जो उनकी भक्ति करते हैं, वे स्वत: ही उन्नत हो जाते हैं। अंत में इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है कि वास्तव में वैदिक, जैन और बौद्ध से प्राप्त तात्त्विक निष्कर्षों में भेद होते हुए भी उनके प्रतिपादकों ने वस्तुओं की असारता से परे जाने के लिए समान पद्धतियों और युक्तियों का सहारा लिया है। इस प्रकार वे मनोवैज्ञानिक, आचारशास्त्रीय और धार्मिक भाव के स्तर पर असाधारण रूप से सहमत हैं। इसके साथ ही मैंने कुछ महत्त्वपूर्ण पाश्चात्य आचारशास्त्रीय सिद्धान्तों की भी आलोचनात्मक दृष्टि से परीक्षा की है। इस कार्य के आयोजन में जिन स्रोतों का उपयोग किया गया है (XXXII) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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