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अंतिम रूप से यह बताना है कि व्यक्ति निम्न श्रेणीवाले जीव को भी नुकसान पहुँचाने से परहेज करे।
यह बात ही पर्याप्त नहीं है कि हम केवल व्यक्ति के जीवन के प्रति सम्मान प्रकट करें, किन्तु हमें उसके व्यक्तित्व और उसकी संपत्ति की पवित्रता को भी अनिवार्य रूप से आदर देना चाहिए। यह दृष्टिकोण जैन व्रतों के सार को व्यक्त करता है जो इस प्रकार वर्णित हैं - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये अणुव्रत कहलाते हैं जब गृहस्थों के लिए बताए जाते हैं और जब यथार्थरूप से साधुओं द्वारा पालन किये जाते हैं तो महाव्रत कहलाते हैं।
इनका अध्ययन यह बताता है कि “वे एक दूसरे पर आश्रित और एक दूसरे के पूरक हैं।" यह बात बेनीप्रसाद द्वारा विचारोत्तेजक निबन्ध (World Problems and Jaina Ethics, Lahore 1945, pp. 17-18) में अच्छी प्रकार से कही गयी है। “जब किसी एक व्रत का मानवीय संबंधों के लिए उपयोग किया जाता है तो तार्किकरूप से दूसरे व्रत भी इसमें आ जाते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो वास्तव में दूसरे व्रतों के बिना कोई भी व्रत अपने आप में निरर्थक सिद्ध होगा। उन व्रतों में से प्रथम अर्थात् अहिंसा मुख्य मानी गयी है। यह (अहिंसा) समस्त उच्च जीवन का आधार है, जैन और बौद्ध नैतिक नियमों में यह . (अहिंसा) मानवतावाद से अधिक व्यापक है, क्योंकि इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण सचेतन सृष्टि समाविष्ट है। अहिंसा की तरह अस्तेय और अपरिग्रह दिखने में निषेधात्मक हैं, किन्तु वास्तव में प्रयोग में विधेयात्मक हैं। पाँचों अणुव्रत मिलकर जीवन की नैतिक और आध्यात्मिक धारणा का निर्माण करते हैं। ये स्व-उत्कर्ष के महान सिद्धान्त के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हैं। इन्हें मूल्यों का उत्कर्षीकरण भी कहा जा सकता है।"
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