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चतुर्थ, जैनधर्म केवल आचार और तत्त्वमीमांसा ही नहीं है बल्कि अध्यात्मवाद भी है। यह इस बात से स्पष्ट है कि जैन आचार्यों द्वारा निरन्तर सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) की वास्तविक उपलब्धि पर जोर दिया गया है। सम्यग्दर्शन की पृष्ठभूमि के बिना सम्पूर्ण जैन आचार चाहे गृहस्थ का हो या मुनि का, पूर्णतया निर्जीव है।
द्वितीय खण्ड की महत्त्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं
मुनिधर्म क्रिया जगत से नहीं बल्कि हिंसा जगत से पीछे हटना है। वास्तव में क्रिया त्यागी नहीं जाती है लेकिन क्रिया का लोकातीत स्वरूप सांसारिक स्वरूप का स्थान ले लेता है। मुनिधर्म का आचरण जो सम्यग्दर्शन सहित शुभ भावों से सम्बन्धित होता है मन्द कषाय के रूप में आध्यात्मिक बाधाओं की उपस्थिति के कारण अहिंसा की पूर्ण अनुभूति को रोक देता है। निःसन्देह मुनि जीवन इस अनुभूति के लिए पूर्ण भूमिका प्रदान करता है लेकिन इसका सम्पूर्ण अनुभव केवल रहस्यात्मक अनुभूति की परिपूर्णता में ही संभव होता है।
जैनधर्म में 'रहस्यवाद' का समानार्थक शब्द 'शुद्धोपयोग' है। कुन्दकुन्द के अनुसार बहिरात्मा को छोड़ने के पश्चात् अन्तरात्मा के द्वारा लोकातीत आत्मा की अनुभूति रहस्यवाद है अर्थात् बहिरात्मा को छोड़ने के पश्चात् अन्तरात्मा के द्वारा परमात्मा की परा-नैतिक अवस्था को प्राप्त करना रहस्यवाद है। यदि रहस्यवादी की पद्धति अनुभव और अन्तर्ज्ञान है तो तत्त्वमीमासंक की पद्धति केवल विचारणा है। रहस्यवादी मार्ग को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रखा गया है, उदाहरणार्थ.. (1) जाग्रति से पूर्व आत्मा का अंधकारकाल (2) आत्मजाग्रति और
उससे पतन (3) शुद्धीकरण (4) ज्योतिपूर्ण अवस्था (5) ज्योति के पश्चात् अंधकार काल और (6) लोकातीत जीवन।
(XXI)
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