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________________ प्राक्कथन एक ही आचार को जैनाचार्यों ने दो भागों में विभाजित करके : समझाया है- गृहस्थाचार और मुनि-आचार। डॉ. कमलचन्द सोगाणी की प्रस्तुत कृति-'जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त' के प्रथम खण्ड में हमने गृहस्थाचार के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की। अब द्वितीय खण्ड में मुनि-आचार का विवेचन किया जा रहा है। लेखक का प्रस्तुतीकरण यहाँ भी वैसा ही अत्यन्त व्यापक एवं निष्पक्ष होने से हृदयग्राह्य बना हुआ है। मुनि-आचार का विवेचन करते हुए लेखक ने उसकी प्रेरक द्वादशानुप्रेक्षाओं से प्रारंभ करके अट्ठाईस मूलगुणों और चौदह गुणस्थानों तक का विस्तृत स्वरूप प्रस्तुत किया है, किन्तु सर्वाधिक बल जिस बात पर दिया है वह है- रहस्यवाद। तथा मैं समझता हूँ कि यही एक इस कृति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। .. बहुत से लोग (कुछ विद्वान तक भी) रहस्यवाद को समझ नहीं पाते, खास तौर से जैन-आचार के साथ तो बिल्कुल ही नहीं समझ पाते, अपितु विरोध-सा व्यक्त करने लगते हैं; जबकि यह जैनआचारशास्त्र का एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण पक्ष/विषय है, जिसे समझना अत्यन्त आवश्यक है। आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। इसे समझे बिना जैन-आचारशास्त्र को पूर्णत:/समीचीनत: नहीं समझा जा सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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