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नहीं है। सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए समुचित प्रयत्न करना आवश्यक है। यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं तो भी इनके लक्षण भिन्न-भिन्न होते हैं, एक का अर्थ श्रद्धा और दूसरे का अर्थ ज्ञान। अतः साधक ने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया तो भी बौद्धिक उपासना और नैतिक आराधना टाली नहीं जा सकती है। (3) शुद्धीकरण या (क) विरताविरत गुणस्थान (ख) प्रमत्तविरत गुणस्थान
साधक चौथे गुणस्थान में अर्थात् अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में अनिच्छापूर्वक हिंसा में रत होता है और भौतिक सुखों में लीन रहता है, वह पाँचवें गुणस्थान अर्थात् विरताविरतगुणस्थान में पहुँचने पर आत्मसंयम के पालन की ओर झुकता है। चूंकि वह चौथे गुणस्थान में अर्थात् अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में अपने को सब पापों से मुक्त नहीं कर पाता है वह पाँचवें गुणस्थान में अपनी चारित्रिक बेचैनी पर विजय प्राप्त करते हुए शीलव्रतों सहित अणुव्रतों को ग्रहण करता है। हम उनका वर्णन गृहस्थ के आचार में कर चुके हैं। आत्मा की इस यात्रा के पड़ाव को विरताविरत या देशविरत गुणस्थान कहा जाता है, क्योंकि यहाँ साधक दो इन्द्रियों से पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा का त्याग करता है किन्तु एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा उसे करनी पड़ती है।
_आत्मानुशासन में गुणभद्र ने आध्यात्मिक विकास के लिए गृहस्थ की असमर्थता को बताया है। उनके अनुसार गृहस्थ की क्रियाएँ
93. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 32 94. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 29 95. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 30 96. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 31
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