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________________ मानता है, साधु को असाधु मानता है, मुक्त को अमुक्त मानता है और इसके विपरीत भी।"39 इसके अतिरिक्त यदि आत्मा अपने विकृत (मिथ्यात्व) दृष्टिकोण को लिए हुए नैतिक मार्ग पर भी चलता है तो वह व्रतों के पालन को, तप करने को तथा आगम पढ़ने को अपने आप में लक्ष्य मान लेता है और उनको अपने अन्दर स्थित दिव्यत्व को उद्घाटित करने में सहायक नहीं मानता। इस प्रकार व्यवहारनय ही आदर्श हो जाता है। हम साररूप में कह सकते हैं कि मिथ्यात्व की अवस्था बहिरात्मा की अवस्था होती है। मिथ्यात्व के प्रकार मिथ्यात्व के प्रकारों पर नय के दृष्टिकोण से विचार करने पर हम कह सकते हैं कि एक वस्तु में अनन्त गुण होते हैं, इसलिए जितने गुण हैं उतने नय होते हैं। जब हम दूसरे नयों को छोड़कर किसी एक नय को ही पकड़ लें तो उतनी संख्या ही मिथ्यात्व (विकृत परिणाम) की होगी।1 अतः मिथ्यात्व की संख्या को सीमित करना आंशिक रूप से ही सही होगा। पूज्यपाद के अनुसार मिथ्यात्व पाँच प्रकार का माना गया है- उदाहरणार्थ (1) एकान्त, (2) विपरीत, (3) संशय, (4) वैनयिक और (5) अज्ञान। (1) एकान्त- दूसरे पक्ष को छोड़कर एक पक्ष पर ही जोर देना एकान्त मिथ्यात्व है।4 (2) विपरीत- वस्तु पर 39. स्थानांग सूत्र, 10/1-734 (vide Tatia: Studies in Jaina Philosophy, P. 145) 40. समयसार, 272-274 षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 162, गाथा 105 42. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 162 43. सर्वार्थसिद्धि, 8/1 44. सर्वार्थसिद्धि, 8/1 (72) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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