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उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्राकृत भाषा को सीखना-समझना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी बात को ध्यान में रखकर अपभ्रंश-प्राकृत साहित्य के अध्ययनअध्यापन एवं प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान' के अन्तर्गत अपभ्रंश साहित्य अकादमी की स्थापना सन् 1988 में की गई। अकादमी का प्रयास है- अपभ्रंश-प्राकृत के अध्ययन-अध्यापन को सशक्त करके उसके सही रूप को सामने रखना जिससे प्राचीन साहित्यिक-निधि के साथ-साथ आधुनिक आर्यभाषाओं के स्वभाव और उनकी सम्भावनाएँ भी स्पष्ट हो सकें।
वर्तमान में प्राकृत भाषा के अध्ययन के लिए पत्राचार के माध्यम से प्राकृत सर्टिफिकेट व प्राकृत डिप्लामो पाठ्यक्रम संचालित हैं, ये दोनों पाठ्यक्रम राजस्थान विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त हैं।
किसी भी भाषा को सीखने, जानने, समझने के लिए उसके रचनात्मक स्वरूप/संरचना को जानना आवश्यक है। प्राकृत के अध्ययन के लिये भी उसकी रचना-प्रक्रिया एवं व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। प्राकृत भाषा को सीखने-समझने को ध्यान में रखकर ही प्राकृत रचना सौरभ', 'प्राकृत अभ्यास सौरभ', 'प्राकृत गद्यपद्य सौरभ (भाग-1)', 'प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ (भाग-1)', 'प्रौढ प्राकृत-अपभ्रंश रचना सौरभ (भाग-2)', 'प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (भाग-2)', 'प्राकृत-व्याकरण' 'प्राकृत अभ्यास उत्तर पुस्तक' 'प्राकृत-व्याकरण अभ्यास उत्तर पुस्तक', 'प्राकृतहिन्दी-व्याकरण (भाग-1)' आदि पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। 'प्राकृतहिन्दी-व्याकरण (भाग-2)' इसी क्रम का प्रकाशन है।
__ 'प्राकृत-हिन्दी-व्याकरण (भाग-2)' प्राकृत भाषा को सीखने-समझने की दिशा में प्रथम व अनूठा प्रयास है। इसका प्रस्तुतिकरण अत्यन्त सहज, सरल, सुबोध एवं नवीन शैली में किया गया है जो विद्यार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। इस
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