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________________ तादात्म्य से जीने का बोध ही सन्नी शिक्षा है, तो इस प्रकार की शिक्षा देने वाले मंदिर व धर्मस्थान वया दास्तविक अर्थ में शिक्षण संस्था या विश्वविद्यालय नहीं है ? तेजस्वी साधु-सन्यासियों के व्याख्यान, प्रदन से प्रदत्त संस्कार अर्पण "एप्लाइड नॉलेज" है। स्कूल-भास्टर तो जगदीशचन्द्र बसु के हवाले से वनस्पति में जीवन प्रमाणित करके अटक जाता है । फलतः प्रयोगशाला में बनस्पति की सजीवता को प्रमाणित करके निकला वालक शाला परिसर के नव अंकुरों के पत्ते तोड़ता घर पहुँच जाता है । उपाश्रयों की कोचिंग क्लास (व्याख्यान) का श्रोता साधु उनसे कई कदम आगे रहता है । वे भगवान महावीर के दर्शन की वनस्पति में प्राण होने की चर्चा करके ही इतिश्री नहीं करते । वनस्पति में अपने जैसा ही जीव विद्यमान है तो उसे पीड़ा पहुंचाने से यथासंभव बचने का उपदेश स्वयं ही ग्रहण कर लेते हैं । ये साधु इन उपदेशों . को आत्मसात् कर उन पर चर्चा करते हैं तो श्रोताओं की रिसेप्टिविटि बढ़ जाती है। उनके व्याख्यानों को सुनकर आने वाला श्रोता घास पर चलने के बदले संभल-संभल कर पगडंडियों पर चलना सीख जाता है । स्कूल, कॉलेज, लेक्चर । पीरियड को प्रगतिशीलता का नाम दिया जाता है । उपाश्रय-पाठशाला, व्याख्यान-प्रवचन को रूढिनुस्तता कहा जाता है। छोड़ (अंकुर) में रहे रणछोड़ (आत्मा) की बात करने वाले पाण्डुरंगशाप्ती ने जितने लोगों को वृक्षों का विनाश करने से रोका है, उतने लोगों को गुजरात के अठारह हजार स्कूलों के अध्यापक भी नहीं रोक पागे हैं । क्योरेटिव कार्य में ही जीवन पूरा करने वाले धनगत भूषणों को प्रिन्टिव कार्यों की महत्ता समझाना कठिन है। प्रिवेरिव कार्य इनविजिवल (अदृश्य) होता है। इनमें फोड़ा पैदा करके उसको चीरने के बदले फोड़ा होने से रोकने जैसी भावना होती है। ईसाई मिशनरियों के अनाथाश्रम व वृद्धाश्रम की प्रशस्ति के गीत गाने वालों को कौन समझाये कि प्राचीन - काल से “मातृदेवो भवः", "पितृदेवो भतः" के संस्कार-दाता संतों के पुण्य प्रभाव से भारत के घर-घर में वृद्धों का अपना प्रिय घर था । यहां तो वृद्ध पशुओं को भी माँ-बाप की तरह संभाल कर रखने की प्रथा थी। अतः वृद्धजनों के लिये वृद्धाश्रमों की आवश्यकता कहाँ थी? इन तथाकथित ओल्ड एज होमों की आवश्यकता तो उन स्थानों पर होती है जहां माँ-बाप को पशुओं की तरह ट्रीट करते हैं। भोग सुखों की संपूर्ण मर्यादा त्यागने के फलस्वरूप उत्पन्न बालकों को रास्ते में भटकना छोड़ने के वारण इंग प्रकार का समाज पैदा हो रहा है । उनके पोषण के लिये अनाथाश्रम खोले जा रहे हैं । क्या ये अनाथाश्रम स्वस्थ समाज के लक्षण हैं या शील, सदाचार, व पवित्रता के संस्कार घुट्टी में पिलाकर सहज संयम द्वारा अनाथ बालकों की उत्पत्ति रोकने वाले धर्मस्थान स्वस्थ समाज के लक्षण हैं ? कहा जाता है कि संसार के आधे लोग पर्याप्त भोजन के अभाव में मरते हैं, और शेष आधे अधिक भोजन के कारण । इस कथन की गहराई तक जायें तो कहना पड़ेगा कि परंपरागत धर्मस्थान मानस परिवर्तन द्वास भोजन भट्टों के आहार संबंधी अतिभोगों को अंकुश में लाने हेतु प्रिवेवि मेडिसिन के कार्यरत हेल्ध-सेंटर है। हीरा-बाजार के बड़े . व्यापारियों द्वारा निर्मित बान्द्रा के अस्पताल के शिलारोपण के प्रसंग पर श्री विजय मर्चन्ट ने कहा था कि जब तक लोगों के खान-पान की आदतें बदलने में नहीं आती, तब तक बांद्रा से नरिमान प्वाईन्ट के मार्ग पर दोनों ओर इस प्रकार के अस्पतालों की कतार खड़ी करने पर भी आवश्यकता पूर्ति के लिये पर्याप्त नहीं होगी। सुविज्ञ वाचक जानते हैं कि सले धर्मगुरूओं के उपदेश में खाने के लिये जीने के बदले स्वयं अपने और जगत की भलाई के लिये जीने और जीने के लिये खाने की बात निश्चित रूप से मान्य है । अस्पताल खड़े करने के तथाकथित रचनात्मक कार्य के बदले अस्पतालों में रोगियों की भरपूर सप्लाय करने वाले जंक फूड के क्रेज की गति में पीड-नेकर्स खड़े करने का कथित खण्डनात्मक कार्य अधिक महत्वपूर्ण है । धर्मस्थानों द्वारा घोषित निषेधों के परिणामस्वरूप परंपरागत धर्मियों के रसोईघर आज भी जंक-फूड के प्रवेश के लिये अभेद्य दुर्ग बने हुए हैं। आरोग्य के तीन आधार स्तम्भों के रूप में आयुर्वेद, आहार-विहार के पश्चात् मनोव्यापार को भी प्रस्तुत करता है । विदेशी अस्पताल स्ट्रेस, टेन्शन, डिप्रेशन जैसे शुद्ध मानसिक और हार्ट एटेक, ब्लडप्रेशर जैसे दूपित मनोव्यापार जनित रोगों से उफन रहे हैं । जीवन मुक्त आत्मा की शुद्ध अवस्था की प्राप्ति के लिये एक साधन के रूप में देवालयों को देखने की सूक्ष्म प्रज्ञा तो समकालीन युग में विरल हो गई है । जिनालयों के बदले अस्पतालों के निर्माण का भोंपू बजाने वाले ये भी नहीं देख पाते कि सुबह-शाम मंदिर में व्यतीत पांच-पन्द्रह मिनिट सामान्य मनुष्य के उबाऊ रात-दिन के दो डिब्दों के बीच बफर का कार्य कर अस्पातालों की भीड़ कम रखते हैं। (46) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004203
Book TitleMananiya Lekho ka Sankalan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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