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________________ प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - उपासक प्रतिमा ६७ *-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-0-0-0-00-00-00-00-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0--- खुली रहती है। यह आधाकर्म आहारादि का त्यागी नहीं होता। इसका उत्कृष्ट कालमान नौ मास है। १०. उद्दिदष्ट भक्त-वर्जन प्रतिमा - इसका धारक अपने लिए बनाए गए आहारादि का सेवन भी नहीं करता। इसमें उस्तरे से या तो पूरा मस्तक मुण्डित होता है या चोटी के केश रख कर शेष मस्तक। यद्यपि इस प्रतिमा में अपनी ओर से किसी सावध विषय में स्वतः कुछ भी नहीं कहा जाता, पर एक बार या बार-बार पूछने पर ज्ञात विषय में 'जानता हूँ तथा अज्ञात विषय में नहीं जानता', इस प्रकार की दो भाषाएं बोलना कल्पता है। यद्यपि वह विरक्त होता है, तथापि इस कथन से यत्किंचित अनुमोदन तो लगता ही है, क्योंकि जो सर्वथा अनुमोदनरहित हो, उसे पूछने पर इन बातों के विषय में कहना भी वर्ण्य है। जैसे कि सर्वथा अनुमोदनरहित साधु को एक मात्र मोक्षमार्ग के अतिरिक्त राजनैतिक, सामाजिक या आर्थिक आदि किसी भी विषय में एक शब्द का भी उच्चारण करना निषिद्ध है। इसका उत्कृष्ट कालमान दस मास का है। ११. श्रमणभूत प्रतिमा - इसमें उस्तरे से मस्तक मुण्डित होता है, शक्ति हो तो लोच भी कर सकता है। इसमें अनुमोदन का सर्वथा त्याग होता है। साधु-साध्वी तो जेनेतरों के यहाँ भी गोचरी जाते हैं, पर श्रमणभूत प्रतिमा वाला अपनी जाति वालों के यहाँ से ही आहार-पानी लेता है, क्योंकि 'ये मेरी ज्ञाति वाले हैं' - इस स्नेह-सम्बन्ध का अभाव नहीं हुआ। इस पर भी वह आहार-पानी लेने में साधु के समान विवेकी व विचक्षण होता है। घर में जाने से पूर्व दाल बनी हो, चावल बाद में बने, तो वह दाल ले सकता है, चावल नहीं। इसी प्रकार जो पूर्व निष्पन्न हो, वही वस्तु लेता है। इसमें वह तीन करण तीन योग से पाप का त्याग करता है। किसी के घर भिक्षार्थ जाने पर - 'मुझ उपासक प्रतिमा संपन्न को आहार दो' - ऐसा कहना कल्पता है। किसी के पूछने पर वह कह सकता है कि मैं प्रतिमा प्रतिपन्न श्रमणोपासक हूँ।' इस प्रतिमा का उत्कृष्ट कालमान ग्यारह मास है। - शंका - क्या प्रथम प्रतिमा के नियम ग्यारहवीं प्रतिमा में भी आवश्यक हैं? समाधान - जी हाँ, पहले के सारे नियम अगली प्रतिमा के लिए भी अनिवार्य हैं। • श्री समवायांग सूत्र के ग्यारहवें समवाय में ग्यारह प्रतिमाओं के नाम बताए गए हैं। श्री दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की छठी दशा में उपासक प्रतिमाओं का स्वरूप विस्तार से बताया गया है। जिज्ञासुओं को वहाँ देख लेना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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