________________
प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - शिवानंदा भी श्रमणोपासिका बनी ५६ *-*-*-*-*--*-*-*-*-*-*-*-*--*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*
कठिन शब्दार्थ - फासुएणं - प्रासुक-अचित्त, एसणिजेणं - एषणीय-निर्दोष, वत्थपडिग्गह-कंबल पायपुंछणेणं - वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद प्रोञ्छन-रजोहरण, पीढ-फलगसिज्जा संथारएणं - पाट, फलक (बाजोट) शय्या-ठहरने का स्थान (उपाश्रय) संस्तारकबिछाने के लिए घास आदि, ओसह-भेसज्जेण - औषध-भेषज, अभिग्गहं - अभिग्रह को, अभिगिण्हइ- धारण (स्वीकार) करता है, पसिणाई - प्रश्न, पुच्छइ - पूछता है, अट्ठाई - अर्थ, आदियइ- धारण करता है, णिसंते - सुना है, इच्छिए - इच्छित-इष्ट, पडिच्छिए - प्रतीच्छित-अत्यंत इष्ट, अभिरुइए - अभिरुचित, पडिवजाहि - स्वीकार करो। ... भावार्थ - श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान और घास आदि का संस्तारक, औषध एवं भेषज, ये चौदह प्रकार की वस्तुएं देना मुझे कल्पता है। आनंद ने ऐसा अभिग्रह धारण कर भगवान् से प्रश्न पूछे, उनका अर्थ-समाधान प्राप्त किया। समाधान प्राप्त कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार वंदना की। वंदना कर भगवान् के पास से द्युतिपलाश चैत्य से निकले, निकल कर जहाँ वाणिज्यग्राम था, जहाँ अपना घर था वहाँ आया। आकर अपनी पत्नी शिवानंदा को इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिये! मैंने श्रमम भगवान् महावीर स्वामी के पास से धर्म सुना है। वह धर्म मेरे लिए इष्ट, अत्यंत इष्ट और रुचिकर है। हे देवानुप्रिये! तुम भगवान् महावीर के पास जाओ, उन्हें वंदना करो यावत् पर्युपासना करो तथा पांच अणुव्रत और सात शिक्षा व्रत रूप बारहं प्रकार का गृहस्थ (श्रावक) धर्म स्वीकार करो।' शिवानंदा भी श्वमणोपासिका बनी
. (८) तए णं सा सिवाणंदा* भारिया आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - 'खिप्पामेव लहुकरण जाव पजुवासइ। तए णं समणे भगवं महावीरे सिवाणंदाए + तीसे य महइ जाव धम्मं कहेइ। तए णं सा सिवाणंदा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म
* पाठान्तर - सिवणंदा,
सिवणंदाए
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org