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________________ श्री उपासकदशांग सूत्र चुका कर शिष्टाचार के लिए बाद में दान देने की तैयारी दिखाना। ऐसा करने वाला व्यक्ति मन ही मन यह जानता है कि उसे भिक्षा या भोजन नहीं देना पड़ेगा और उसकी बात भी रह जायेगी, यों कुछ लगे बिना ही सत्कार हो जायगा। ४. परव्यपदेश - नहीं देने की बुद्धि से अपनी वस्तु को दूसरों की बताना। स्वयं सूझता है पर साधु संतों पर भक्ति बहुमान नहीं होने से नौकर चाकर आदि को बहराने के लिए कह देना भी परव्यपदेश अतिचार है। ५. मत्सरिता - ईष्यावश दान देना अथवा दूसरे दाताओं पर ईर्ष्याभाव लाना आदि। जैसे कोई व्यक्ति देखता है, अमुक ने ऐसा दान दिया है तो उसके मन में आता है, मैं उसे कम थोड़ा ही हूँ, मैं भी हूँ? ऐसा करने में दान की भावना नहीं है, अहंकार की भावना है। दान देने में कंजूसी करना, क्रोध पूर्वक भिक्षा देना भी इसी अतिचार के अंतर्गत है। संलेखना के अतिचार तयाणंतरं च णं अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणाराहणाए पंच अइयारा जाणियव्वा ण समायरियव्वा, तंजहा - इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे १३। कठिन शब्दार्थ - अपच्छिम - अन्तिम या आखिरी, जिसके बाद इस जीवन में और कुछ करना बाकी न रह जाय, मारणांतिय - मारणांतिक-मरण पर्यन्त चलने वाली, संलेहणासंलेखना-कषाय और शरीर को क्षीण करना, झूसणा - जोषणा - प्रीतिपूर्वक सेवन, आराहणाआराधना-अनुसरण करना या जीवन में उतारना, इहलोगासंसप्पओगे - इहलोक आशंसा प्रयोग, परलोगासंसप्पओगे - परलोकाशंसा प्रयोग, जीविया संसप्पओगे - जीविताशंसा प्रयोग, मरणासंसप्पओगे - मरणाशंसा प्रयोग। भावार्थ - तत्पश्चात् अपश्चिम मारणांतिक संलेषणा जोषणा आराधना के पांच अतिचारों को जानना चाहिये, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं - १. इहलोक आशंसा प्रयोग २. परलोक आशंसा प्रयोग ३. जीवित आशंसा प्रयोग ४. मरण आशंसा प्रयोग तथा ५. कामभोग आशंसा प्रयोग। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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