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श्री उपासकदशांग सूत्र
उपसंहार
(७१) दसण्ह वि पणरसमे संवच्छरे वट्टमाणाणं चिंता। दसण्ह - वि वीसं वासाइं समणोवासयपरियाओ।
कठिन शब्दार्थ - समणोवासयपरियाओ - श्रमणोपासक पर्याय।
भावार्थ - दसों ही श्रावकों को पन्द्रहवें वर्ष में निवृत्ति धारण करने की इच्छा हुई। दसों ने बीस वर्ष की श्रमणोपासक-पर्याय का पालन किया।
एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं अयमढे पण्णत्ते।
भावार्थ - आर्य सुधर्मास्वामी ने जम्बू स्वामी से कहा - हे जम्बू! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सातवें अंग उपासकदशा के दसवें अध्ययन का यह भाव फरमाया है। ___ उवासगदसाणं सत्तमस्स अंगस्स एगो सुयखंधो दस अज्झयणा एक्कसरगा दससु चेव दिवसेसु उद्दिस्सिजंति तओ सुयखंधो समुद्दिस्सिज्जइ अणुण्णविजइ दोसु दिवसेसु अंगं तहेव।
॥ उवासगदसाओ समत्ताओ।। कठिन शब्दार्थ - सुयखंधो - श्रुतस्कंध, एक्कसरगा - एक सरीखा स्वर-पाठ शैली, दिवसेसु - दिवसों में, उहिस्संति - उद्देश किया जाता है, समुद्दिस्सइ - समुद्देश-सूत्र को स्थिर और परिचित करने का उद्देश किया जाता है, अणुण्णविजइ - अनुज्ञा दी जाती है।
भावार्थ - सातवें अंग उपासकदशा में एक श्रुतस्कंध तथा दस अध्ययन कहे गए हैं। ये दस अध्ययन एक समान है - एक सरीखा स्वर-पाठ शैली है, गद्यात्मक शैली में ग्रथित हैं। इनका अध्ययन दस दिनों में पूरा होता है, तत्पश्चात् समुद्देश किया जाताहै, अनुज्ञा - सम्मति दी जाती है। दो दिनों में अंग का समुद्देश और अनुमति समझना चाहिये।
॥ उपासकदशांग सूत्र समाप्त॥
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