SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आठवां अध्ययन श्रमणोपासक महाशतक - भावार्थ - रेवती के वचन दो-तीन बार सुन कर महाशतक श्रमणोपासक कुपित हुआ । अवधिज्ञान में उपयोग लगा कर आगामी भव देखा तथा प्रथम नरक में उत्पन्न होवेगी यावत् वचन कहे । हे गौतम! अपश्चिममारणांतिकी संलेखना स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा और आहार की अभिलाषा नहीं रखने वाले श्रावक को सत्य, तथ्य, यथार्थ एवं सद्भूत होते हुए भी अप्रिय, अकान्त, अनिष्ट लगने वाले, मन को नहीं भाने वाले और मन को बुरे लगने वाले वचन कहना नहीं कल्पता है । अतः हे देवानुप्रिय गौतम! तुम महाशतक के समीप पौषधशाला में जाओ और उससे कहो कि "संलेखना में श्रावक को ऐसे वचन कहना नहीं कल्पता है। तुमने रेवती गाथापत्नी को सत्य बात भी अप्रिय-अनिष्ट आदि लगने वाली कही, अतः उस दोषस्थान की आलोचना - प्रतिक्रमण कर यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार करो। " Jain Education International महाशतक तुम प्रायश्चित्त लो १६३ तणं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स 'तह' त्ति एयमट्ठ विणणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिहं णयरं मज्झमज्झेणं अणुप्पविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ । भावार्थ - भगवान् का आदेश सुन कर गौतमस्वामी ने विनयपूर्वक स्वीकार किया और अपने स्थान से निकले तथा राजगृह नगर में प्रविष्ट होकर महाशतक श्रमणोपासक के घर पधारे । महाशतक तुम प्रायश्चित्त लो तणं से महासय समणोवासए भगवं गोयमं एजमाणं पासइ, पासिता हट्ठ जाव हियए भगवं गोयमं वंदइ णमंसइ । तए णं से भगवं गोयमे महासययं समणोवासयं एवं वयासी - ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खड़ भासइ पण्णवेइ परूवेइ णो खलु कप्पर देवाणुप्पिया ! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव वागरित्तए, तुमे णं देवाणुप्पिया! रेवई गाहावइणी संतेहिं जाव वागरिया, तं णं तुमं देवाणुप्पिया! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवज्जाहि । ' - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy