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________________ [18j . जीती जागती स्वयं अग्निकुण्ड में कूद कर जल मरने वाली वीरांगनाएं हुई। क्रोध, शोक या हताश हो कर आत्मघात करने की घटनाएं तो होती ही रहती है - हमारे अपने ही युग में। कई मनोबली बिना क्लोरोफार्म लिये बड़ा आपरेशन करवा लेते हैं। फिर धर्म के लिए ही साहस का अभाव कैसे माना जाय? क्या इस युग में एक भवावतारी नहीं हो सकते? __मैं तो सोचता हूँ कि कोई निष्ठापूर्वक अपनी सामर्थ्य के अनुसार सम्यक् साधना करे, तो उन श्रमणोपासकों के समान साधना हो सकना असंभव नहीं है। इस सूत्र का मननपूर्वक स्वाध्याय करना विशेष लाभकारी होगा। इससे हमें मार्गदर्शन मिलेगा, साथ ही धर्म-आराधना में अग्रसर होने की प्रेरणा मिलेगी। उपासकदशांग का यह प्रकाशन बहुत दिनों से मेरी भावना प्रज्ञापना सूत्र का प्रकाशन करने की थीं, परन्तु कोई अनुवाद करने वाला नहीं मिल रहा था। एक महाशय से अनुवाद करवाया था, परन्तु वह उपयुक्त नहीं लगा। फिर मैंने यह काम प्रारम्भ किया, तो अन्य अधूरे पड़े कार्यों के समान यह कार्य भी रुक गया। मैं प्रथम पद का एकेन्द्रिय जीवों का अधिकार भी पूर्ण नहीं कर सका। तत्पश्चात् यहाँ । पं. मु. श्री उदयचन्दजी म. पधारे। मैंने आपसे यह कार्य करने का निवेदन किया। आपने सहर्ष स्वीकार किया और कार्य चालू कर दिया। यदि यह कार्य सतत चालू रहता, तो अब तक कम से कम प्रथम भाग तो प्रकाशित हो ही जाता, परन्तु वे विहार और व्याख्यानादि में व्यस्त रहने के कारण प्रथम भाग जितना अंश भी नहीं बना सके। प्रज्ञापना के पश्चात् मेरा विचार जीवाजीवाभिगम सूत्र के प्रकाशन का भी था। परन्तु अब यह असंभव लग रहा है। मैं यह भी चाहता था कि अपने साधर्मी बन्धुओं के उपयोग के लिए उपासकदशांग का प्रकाशन भी होना चाहिए। परन्तु करे कौन? . ____ गत कार्तिक शुक्लपक्ष में मैं दर्शनार्थ पाली-जोधपुर आदि गया था। वहाँ सुधर्मप्रचार मंडल के अग्रगण्य महानुभावों-धर्ममूर्ति श्रीमान् सेठ किसनलालजी सा. मालू, धार्मिक शिक्षा के प्रेमी एवं सक्रिय प्रसारक तत्त्वज्ञ श्रीमान् धींगड़मलजी साहब, संयोजक श्री घीसूलालजी पितलिया आदि से विचार-विनिमय चलते मैंने श्री घीसूलालजी पितलिया से कहा - "आप उपासकदशांग सूत्र का अनुवाद कीजिये। यह सूत्र सरल है। फिर भी मैं देख लूँगा और संघ से प्रकाशित हो जायगा।" श्री पितलिया जी ने स्वीकार कर लिया। फिर साधनों और शैली के विषय में बात हुई। पत्र-व्यवहार भी होता रहा। परिणाम स्वरूप यह सूत्र प्रकाश में आया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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