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आठवां अध्ययन - श्रमणोपासक महाशतक - रेवती पति को मोहित करने गई १५७
चोद्दस संवच्छरा वीइक्कंता। एवं तहेव जेट्ठ पुत्तं ठवेइ जाव पोसहसालाए धम्मपण्णत्तिं उवसंपजित्ताणं विहरइ। तए णं सा रेवई गाहावइणी मत्ता लुलिया विइण्णकेसी उत्तरिजयं विकड्डमाणी विकड्डमाणी जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मोहुम्मायजणणाई सिंगारियाई इत्थिभावाइं उवदंसेमाणी उवदंसेमाणी महासययं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो महासयगा! समणोवासया! धम्मकामया पुण्णकामया सग्गकामया मोक्खकामया धम्मकंखिया ४ धम्मपिवासिया ४ किण्णं तुभं देवाणुप्पिया! धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मोक्खेण वा? जण्णं तुमं मए सद्धिं उरालाई जाव भुंजमाणे णो विहरसि?'
कठिन शब्दार्थ - मत्ता - उन्मत्त, लुलिया - लड़खड़ाती हुई, विइण्णकेसी - बाल बिखेरे, उत्तरिजयं - उत्तरीय-दुपट्टा या औढना, विकड्ढमाणी - फेंकती हुई, मोहुम्मायजणणाईमोह तथा उन्मादजन के, सिंगारियाई - कामोद्दीपक, इत्थीभावाइं उवदंसेमाणी - कटाक्ष आदि हावभाव प्रदर्शित करती हुई, धम्मकामया - धर्म की कामना-इच्छा रखने वाले धर्म के कामी, पुण्णकामया - पुण्य के कामी, सग्गकामया - स्वर्ग के कामी, मोक्खकामया - मोक्ष की कामना वाले, धम्मकंखिया - धर्म के आकांक्षी, धम्मपिवासिया - धर्म के पिपासु।
भावार्थ - महाशतक श्रमणोपासक को श्रावक-व्रतों का निर्मल पालन कर के आत्मा को भावित करते हुए चौदह वर्ष बीत गए। तत्पश्चात् आनन्दजी की भाँति उन्होंने भी ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा और पौषधशाला में जा कर भगवान् की धर्म-प्रज्ञप्ति स्वीकार कर ली। एक बार रेवती भार्या उन्मत्त बनी हुई, मदिरा पीने के कारण स्खलित गति वाली, केश बिखरे हुए, ओढ़ने से सिर ढके बिना ही उस महाशतक श्रमणोपासक के समीप आई और कामोद्दीपन करने वाले श्रृंगारयुक्त मोहक वचन कहने लगी - - "अरे हे महाशतक श्रमणोपासक! तुम धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष के कामी हो, आकांक्षी हो, धर्म-पुण्य एवं मोक्ष प्राप्ति के पिपासु हो, परन्तु तुम्हें धर्म, पुण्य, स्वर्ग या मोक्ष से क्या प्रयोजन है? तुम मेरे साथ कामभोग क्यों नहीं भोगते अर्थात् भावी सुख की कल्पना में प्राप्त वैषयिक सुख की उपेक्षा क्यों कर रहे हो?"
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