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________________ सातवां अध्ययन - श्रमणोपासक सकडालपुत्र - देवोपसर्ग १४६ -----------*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-**-19-19-19-19 पोलासपुराओ णयराओ पडिणिक्खमइ, परिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। कठिन शब्दार्थ - आघवणाहि - आख्यापना - अनेक प्रकार से कह कर, पण्णवणाहिप्रज्ञापना - भेदपूर्वक तत्त्व निरूपण कर, सण्णवणाहि - संज्ञापना - भलीभांति समझा कर, विण्णवणाहि - विज्ञापना - उसके मन के अनुकूल भाषण करके, णिग्गंथाओ पावयणाओनिग्रंथ प्रवचन से, चालित्तए - विचलित, खोभित्तए - क्षोभित, विप्परिणामित्तए - विपरिणामितविपरीत परिणाम युक्त, संते - श्रान्त, तंते - क्लान्त, परितंते - खिन्न होकर। भावार्थ - मंखलिपुत्र गोशालक ने सकडालपुत्र श्रमणोपासक का यह कथन स्वीकार किया और उसकी दुकानों (कर्मशालाओं) से प्रातिहारिक पाट पाटले शय्या आदि ग्रहण कर रहने लगा। . मंखलिपुत्र गोशालक जब भांति भांति के सामान्य वचनों, विशेष वचनों, अनुकूल वचनों एवं प्रतिकूल वचनों से भी जब वह सकडालपुत्र को निग्रंथ-प्रवचन से चलित नहीं कर सका, क्षुभित नहीं कर सका, मन-परिणामों से भी विचलित नहीं कर सका, तो थक कर, खेदित हो कर, पोलासपुर से बाहर जनपद में विचरने लगा। देवोपसर्ग .. . (५६) तए.णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स बहूहिं सील जाव भावेमाणस्स चोइस संवच्छरा वीइक्कंता, पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले जाव पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपजित्ताणं विहरइ। तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था। तए णं से देवे एगं महं णीलुप्पल जाव असिं गहाय सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-जहा चुलणीपियस्स तहेव देवो उवसग्गं करेइ, णवरं एक्केक्के पुत्ते णव मंससोल्लए करेइ जाव कणीयसं घाएइ, घाएत्ता जाव आयंचइ। तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए अभीए जाव विहरइ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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